भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन notes

भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन notes

भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन notes

Hello Aspirants,

The Indian independence movement was a widespread movement that aimed to achieve India’s independence from British rule. Here are some of the key events and figures associated with the movement:

Indian National Congress: This was a political party that played a significant role in the independence movement, and was founded in 1885 by Allan Octavian Hume, Dadabhai Naoroji, and Dinshaw Wacha.

Mahatma Gandhi: He was a key figure in the Indian independence movement and advocated for nonviolent civil disobedience as a means to achieve independence. He led numerous protests and movements, such as the Salt Satyagraha and the Quit India Movement.

Jawaharlal Nehru: He was a close associate of Gandhi and became the first Prime Minister of independent India.

Quit India Movement: This was a widespread civil disobedience movement launched by the Indian National Congress in 1942, which aimed to force the British government to leave India immediately.

Partition of India: This was a significant event in Indian history that occurred in 1947, which resulted in the creation of India and Pakistan as separate nations. The partition was marked by widespread violence and displacement, and is still a deeply divisive issue in the region.

Indian Independence: India achieved independence from British rule on August 15, 1947, after decades of struggle and sacrifice by numerous figures and movements.

These are just a few of the many significant events and figures associated with the Indian independence movement.

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भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन

भारत की स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन दो प्रकार का था, एक अहिंसक आन्दोलन एवं दूसरा सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन। भारत की आज़ादी के लिए 1857 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई। वस्तुतः भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है। भारत की धरती के जितनी भक्ति और मातृ-भावना उस युग में थी, उतनी कभी नहीं रही। मातृभूमि की सेवा और उसके लिए मर-मिटने की जो भावना उस समय थी, आज उसका नितान्त अभाव हो गया है।

क्रांतिकारी आंदोलन का समय सामान्यतः लोगों ने सन् 1857 से 1942 तक माना है। श्रीकृष्ण सरल का मत है कि इसका समय सन् 1757 अर्थात् प्लासी के युद्ध से सन् 1961 अर्थात् गोवा मुक्ति तक मानना चाहिए। सन् 1961 में गोवा मुक्ति के साथ ही भारतवर्ष पूर्ण रूप से स्वाधीन हो सका है।

जिस प्रकार एक विशाल नदी अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपने गंतव्य अर्थात् सागर मिलन तक अबाध रूप से बहती जाती है और बीच-बीच में उसमें अन्य छोटी-छोटी धाराएँ भी मिलती रहती हैं, उसी प्रकार भारत की मुक्ति गंगा का प्रवाह भी सन् 1757 से सन् 1961 तक अजस्र रहा है और उसमें मुक्ति यत्न की अन्य धाराएँ भी मिलती रही हैं। भारतीय स्वतंत्रता के सशस्त्र संग्राम की विशेषता यह रही है कि क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास कभी शिथिल नहीं हुए।

भारत की स्वतंत्रता के बाद आधुनिक नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया गया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरान्त यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।

भूमिका

भारत को मुक्त कराने के लिए सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा रही है। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। बंगाल में सैनिक-विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, सन्यासी विद्रोह, भूमिज विद्रोह, संथाल विद्रोह अनेक सशस्त्र विद्रोहों की परिणति सत्तावन के विद्रोह के रूप में हुई। प्रथम स्वातन्त्र्य–संघर्ष के असफल हो जाने पर भी विद्रोह की अग्नि ठण्डी नहीं हुई। शीघ्र ही दस-पन्द्रह वर्षों के बाद पंजाब में कूका विद्रोह व महाराष्ट्र में वासुदेव बलवन्त फड़के के छापामार युद्ध शुरू हो गए। संयुक्त प्रान्त में पं॰ गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और मातृदेवी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत जलती रही। सरदार अजीत सिंह ने सत्तावन के स्वतंत्रता–आन्दोलन की पुनरावृत्ति के प्रयत्न शुरू कर दिए। रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल ने बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजपुताना, संयुक्त प्रान्त व पंजाब से लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेश कर 1915 में पुनः विद्रोह की सारी तैयारी कर ली थी। दुर्दैव से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके भी नए-नए क्रान्तिकारी उभरते रहे। राजा महेन्द्र प्रताप और उनके साथियों ने तो अफगान प्रदेश में अस्थायी व समान्तर सरकार स्थापित कर ली। सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया। रासबिहारी बोस ने जापान में आज़ाद हिन्द फौज के लिए अनुकूल भूमिका बनाई।

मलाया व सिंगापुर में आज़ाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाष चन्द्र बोस ने इसी कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारतभूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ, उसने भारत की ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं। भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर व अत्याचारपूर्ण अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली। विशेषतः काकोरी काण्ड के अभियुक्त तथा भगतसिंह और उसके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दासगुप्त ने कहा कि क्रांतिकारी की निधि थी “कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान”, महात्मा गांधी की निधि थी “अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान”। सन् 42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारतामाता के परों में बंधी शृंखला तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा थी। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर अध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। शोषणरहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे। उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतंत्रता यदि सशस्त्र क्रांति के द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता, क्योंकि सत्ता उन हाथों में न आई होती, जिनके कारण देश में अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं:

उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।

नाविक विद्रोह के सैनिकों को स्वतंत्र भारत की सेना में महत्वपूर्ण कार्य देना न्यायोचित होता, परन्तु नौकरशाहों ने उन्हें सेना में रखना शासकीय नियमों का उल्लंघन समझा। अनेक क्रांतिकारियों की अस्थियाँ विदेशों में हैं। अनेक क्रांतिकारियों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल बन गए हैं। क्रांतिकारियों की बची हुई पीढ़ी भी समाप्त हो गई है। निराशा में आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की थोड़ी-बहुत भावना अभी भी शेष है। उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएँ पहुँचाना हमारा दायित्व है। क्रान्तिकारियों पर लिखने के कुछ प्रयत्न हुए हैं। शचीन्द्रनाथ सान्याल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त व रामकृष्ण खत्री आदि ने पुस्तकें लिखकर हमें जानकारी देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतर लेखकों ने भी इस दिशा में कार्य किया है।

परिचय
भारतीय स्वतंत्रता के लिये आरम्भ से ही समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव होते रहे।

1757 से अंग्रेजी राज द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सो में विद्रोंह की चिंगारियाँ भी फूटने लगीं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में फूट पड़ी। 1757 के बाद शुरू हुआ संन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर चुआड़ विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), सिलहट विद्रोह (1787-1799), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), विजयानगरम विद्रोह (1794), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), मिदनापुर आदिवासी चुआड़ विद्रोह (1799), पलामू विद्रोह (1800-02), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आंदोलन (1830-61), 24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), कोल विद्रोह (1831-32), भूमिज विद्रोह (1832-33), संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), मुंडा विद्रोह (1834), सूरत का नमक आंदोलन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आंदोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), संथाल विद्रोह (1855-56), तक सिलसिला जारी रहा। जिसके बीच में हैदर अली, टीपू सुल्तान व नाना फर्णनविस के भारत की आजादी के लिये संगठित प्रतिरोध ने अंग्रेजों के लिये भारी मुश्किले पैदा कर दीं।

प्लासी का युद्ध (सन् 1757)

मुख्य लेख: प्लासी का पहला युद्ध
प्लासी का युद्ध अंग्रेजों और बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के बीच सन् 1757 में लड़ा गया था। यह युद्ध केवल आठ घण्टे चला और कुल तेईस सैनिक मारे गए। युद्ध में सिराजुद्दौला की ओर से मीर जाफर ने गद्दारी की और रॉबर्ट क्लाइव ने उसका भरपूर लाभ उठाया। प्लासी-विजय के पश्चात् भारतवर्ष में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ गई। प्लासी का पहला युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में भागीरथी नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान में हुआ था। इस युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर थी बंगाल के नवाब की सेना।[2] कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नवाब सिराज़ुद्दौला को हरा दिया था। किंतु इस युद्ध को कम्पनी की जीत नही मान सकते कयोंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक मीर जाफर, उसके दरबारी, तथा राज्य के अमीर सेठ जगत सेठ आदि से कलाइव ने षडंयत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध मे भाग भी नही लिया था युद्ध के फ़ौरन बाद मीर जाफ़र के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है।

प्लासी युद्ध के कारण और परिणाम’

आधुनिक भारत के इतिहास में प्लासी युद्ध का अत्यंत महत्व है। इस युद्ध के द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब सिराजुददौला को पराजित कर बंगाल में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली। इस लिए इस युद्ध को भारत के निर्णायक युद्धों में विशिष्ट स्थान उपलब्ध है।

बंगाल मुगल साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था। परन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रांतों में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। जिसमें अलवर्दी खाँ ने बंगाल पर अपना अधिकार कर लिया। उन्हें कोई पुत्र नहीं था। सिर्फ तीन पुत्रियाँ थी। बड़ी लड़की छसीटी बेगम नि:सन्तान थी। दूसरी और तीसरी से एक- एक पुत्र थे। जिसका नाम शौकतगंज, और सिराजुद्दौला था। वे सिराजुद्दौला को अधिक प्यार करते थे। इसलिए अपने जीवन काल में ही उसने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

10 अप्रैल 1756 को अलवर्दी की मृत्यु हुई। और सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना परन्तु शुरु से ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ उसका संघर्ष अवश्यभावी हो गया। अंत में 23 जून 1757 को दोनों के बीच युद्ध छिड़ा जिसे प्लासी युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध के अनेक कारण थे जो इस प्रकार है।

आंतरिक संघर्ष-

गद्दी पर बैठते ही सिराजुद्दौला को शौकतगंज के संघर्ष का सामना करना पड़ा क्योंकि शौकतगंज नवाब बनना चाहता था। इसमें छसीटी बेगम तथा उसके दिवान राजवल्लाव और मुगल सम्राट का समर्थन उसे प्राप्त था इस लिए सिराजुद्दौला ने सबसे पहले उस आन्तरिक संघर्ष को सुलझाने का प्रयास किया। क्योंकि इसी के चलते बंगाल की राजनीति में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा था नवाब ने शौकतगंज की हत्या कर दी। और इसके पश्चात उसने अंग्रेजों से मुकाबला करने का निश्चय किया।

अंग्रेज द्वारा नवाब के विरुद्ध षडयंत्र-

प्रारंभ से ही अंग्रेजों की आखें बंगाल पर लगी हुई थी। क्योंकि बंगाल एक उपजाऊ और धनी प्रांत था। अगर बंगाल पर कम्पनी का अधिकार हो जाता तो उसे अधिक से अधिक धन कमाने की आशा थी। इतना ही नहीं वे हिन्दु व्यापारियों को अपनी ओर मिलाकर उन्हें नवाब के विरुद्ध भड़काना शुरु किया नवाब इसे पसन्द नहीं करता था।

व्यापारिक सुविधाओं का उपयोग-

मुगल सम्राट के द्वारा अंग्रेजों को निशुल्क सामुद्रिक व्यापार करने की छूट मिलि थी लेकिन अंग्रेजों ने इसका दुरुपयोग करना शुरु किया। वे अपना व्यक्तिगत व्यापार भी नि:शुल्क करने लगे और देशी व्यापारियों को बिना चुंगी दिए व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित करने लगे। इससे नवाब को आर्थीक क्षति पहुँचती थी। नवाब इन्हें पसन्द नहीं करता था जब, उन्होने व्यापारिक सुविधाओं के दुरुपयोग को बन्द करने का निश्चय किया तो अंग्रेज संघर्ष पर उतर आए।

अंग्रेजों द्वारा किले बन्दी-

इस समय यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध छिड़ने की आशंका थी। जिसमें इंगलैण्ड और फ्रांस एक दूसरे के विरुद्ध लड़ने वाले थे अत: दूसरे देश में भी जो अंग्रेज और फ्रांसीसी थे। उन्हे युद्ध की आशंका थी। इसलिए अपनी- 2 स्थिति को मजबूत करने के लिए उन्होनें किलेबन्दी करना शुरु किया। नवाब इसे बर्दास्त नहीं कर सकता था।

अंग्रेज द्वारा सिराजुद्दौला को नवाब की मान्यता नहीं देना-

बंगाल की प्राचीन परम्परा के अनुसार अगर कोई नया नवाब गद्दी पर बैठता था तो उस दिन दरवार लगती थी। और उसके अधीन निवास करने वाले राजाओं, अमीरों या विदेशी जातियों के प्रतिनिधियों को दरबार में उपस्थित हो कर उपहार भेट करना पड़ता था। कि वे नये नवाब को स्वीकार करते हैं। परन्तु सिराजुद्दौला के राज्यभिषेक के अवसर पर अंग्रेजों का कोई प्रतिनिधि दरबार में हाजिर नहीं हुआ। क्योंकि वे सिराजुद्दौला को नवाब नहीं मानते थे इसके चलते भी दोनों के बीच संघर्ष की संम्भावना बढ़ती गई।

नवाब बदलने की कोशिश-

अंग्रेज सिराजुद्दौला को हटा कर किसी ऐसे व्यक्ति को नवाब बनाना चाहते थे जो उसके इशारे पर चलने के लिए तैयार हो इसके लिए अंग्रेजों ने प्रयास करना शुरु किया। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष टाला नहीं जा सकता था।

कलकत्ता पर आक्रमण-

जब नवाब ने किले बंदी करने को रोकने का आदेश जारी किया तो अंग्रेजों ने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया वो किले का निर्माण करते रहे। इसपर नवाब क्रोधित हो उठा और 4 जुन 1756 को कासिमबाजार की कोठी पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सैनिक इस आक्रमण से घबड़ा गए और अंग्रेजों की पराजय हुई और कासिम बाजार पर नवाब का अधिकार हो गया। इसके बाद नवाब ने शिघ्र ही कलकत्ता के फोर्ट विलिय पर आक्रमण किया यहाँ अंग्रेज सैनिक भी नवाब के समक्ष टीक नहीं पाया और इसपर भी नवाब का अधिकार हो गया। इस युद्ध में काफी अंग्रेज सैनिक गिरफ्तार किये गये।

काली कोठरी की दुर्घटना-

उपर्युक्त लड़ाई में नवाब ने 146 अंग्रेज सैनिकों को कैद कर लिया तो उसे एक छोटी सी अंधेरी कोठरी में बन्द कर दिया इसकी लम्बाई 18 फिट और चौड़ाई 14- 10 फिट थी। यह अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया था और इसमें भारतीय अपराधियों को बन्द किया जाता था। चुँकि गर्मी का दिन था और युद्ध के परिम थे 123 सैनिकों की मृत्यु दम घुटने के कारण हो गई और 23 सैनिक बचे जिसमें हाँवेल एक अंग्रेज सैनिक भी था। उसी के इस घटना की जानकारी मद्रास के अंग्रेजों को दी। इसी दुर्घटना को काली कोठरी की दुर्घटना के नाम से जाना जाता है। इसके चलते अंग्रेजों का क्रोध भड़क उठा और वे नवाब से युद्ध की तैयारी करने लगे।

अंग्रेजों द्वारा कलकत्ता पर पुन: अधिकार-

अपनी पराजय का बदला लेने के लिए अंग्रेज ने शीघ्र ही कलकत्ता पर आक्रमण कर दिया। इस समय नवाब ने मानिकचन्द को कलकत्ता का राजा नियुक्त किया था। लेकिन वह अंग्रेजों का मित्र और शुभचिन्तक था। फलत: अंग्रेजों की विजय हुई कलकत्ता नवाब के चंगुल से मुक्त हो गया। 9 फरवरी 1757 को दोनों के बीच अली नगर की संधि हुई और अंग्रेजों को फिर से सभी तरह के व्यवहारिक अधिकार उपलब्ध हो गया।

फ्रांसीसीयों पर अंग्रेजों का आक्रमण-

अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों की वस्ती चन्द नगर पर आक्रमण कर दिया। और उसे अपने अधीन कर लिया। फ्रांसिसी नवाब के मित्र थे इसलिए नवाब इस घटना से काफी क्षुब्ध थे।

मीरजाफर के साथ गुप्त संधि –

इसी समय अंग्रेजों ने नवाब को पदच्युत करने के लिए एक षडयंत्र रचा। इसमें नवाब के भी कई लोग शामिल थे। जैसे- रायदुर्लभ प्रधान सेनापति मीरजाफर और धनी व्यापाकिर जगत सेवक आदि। अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाने का प्रलोभन दिया और इसके साथ गुप्त संधि की इस संधि के पश्चात नवाब पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होने अली नगर की संधि का उलंघन किया है और उसी का बहाना बनाकर अंग्रेज ने नवाब पर 22 जुन 1757 को आक्रमण कर दिया। प्लासी युद्ध के मैदान में घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ मीरजाफर तो पहले ही अंग्रेजों से संधि कर चुका था फलत: नवाब की जबरदस्त पराजय हुई। अंग्रेजों की विजय हुई। नवाब की हत्या कर दी गई और मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया।

प्लासी युद्ध के परिणाम-

प्लासी युद्ध के द्वारा बंगाल में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली गई। अंग्रेजों को नवाब बनाया गया। प्लासी का युद्ध वास्तव में कोई युद्ध नहीं था यह एक षडयंत्र और विश्वासघाति का प्रदर्शन था प्रसिद्ध इतिहासकार ‘पानीवकर’ के अनुसार प्लासी का युद्ध नहीं, परन्तु इसका परिणाम काफी महत्वपूर्ण निकला। इसलिए इसे विश्व के निर्णायक युद्धों में स्थान उपलब्ध है। क्योंकि इसी के द्वारा बंगाल में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली गई। क्लाइव ने इस युद्ध को क्रांति की संज्ञा दी है। वास्तव में यह एक क्रांति थी क्योंकि इसके द्वारा भारतीय इतिहास की धारा में महान परिवर्तन आ गया और एक व्यापारिक संस्था ने बंगाल की राजनितिक बागडोर अपने हाथों में ले ली। इसके विभिन्न तरह के परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं।

राजनीतिक परिणाम-

इसके राजनीतिक परिणाम भारत के लिए घातक सिद्ध हुआ। इसके द्वारा एक व्यापारिक संस्था के हाथों में राजनीतिक अधिकारों का समावेश हुआ और भारत में अंग्रेजी सत्ता कायम हुआ। वस्तुत: यह ब्रिटिश राष्ट्र के लिए अत्यधिक महत्व था इस युद्ध के पश्चात मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया। परन्तु यह क अयोग्य व्यक्ति था। इसके अयोग्यता काफायता उठाते हुए बंगाल का वास्तविक शासक अंग्रेज बन गए। बंगाल पर अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ता गया और धीरे- 2 ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का मार्ग साफ होता गया। सिराजुद्दौला के हटने से अंग्रेजों को राजनीतिक प्रभुत्व बढाने का फायदा मिला। मुगल साम्राज्य के लिए बी प्लासी का परिणाम घातक सिद्ध हुआ बंगाल से प्रतिवर्ष मुगल शासक को अच्छी आमदनी होती थी लेकिन अब यह आमदनी समाप्त हो गई। अंग्रेजों को भारतीय नरेशों को कमजोरी की जानकारी मिल गई। भविष्य में उसने उसका काफी फायदा उठाया और उत्तरी भारत की विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ।

आर्थिक परिणाम-

इस युद्ध के द्वारा अंग्रेजों को काफी आर्थिक लाभ पहुँचा मीरजाफर ने कम्पनी को 1 करोड़ 17 लाख रुपये दिये जिससे कम्पनी की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत हो गई बंगाल की लुट से भी उसे काफी धन हाथ लगा। कम्पनी के मठ कर्मचारियों को साढ़े 12 लाख रुपए मिले। क्लाइव को दो लाख 24 हजार रुपए मिले। इस युद्ध के पश्चात कम्पनी धीरे- 2 जागीदार बाद में बंगाल की दीवान बन गई। इस प्रकार इसके द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली गई। अंग्रेजों को पुन: व्यापार करने का अधिकार मिला मीरजाफर ने कम्पनी को घूस के रूप में 3 करोड़ रुपए प्रदान किए तथा व्यापार से भी अंग्रेजों ने 15 करोड़ का मुनाफा कमाया।

चुआड़ विद्रोह (सन् 1766)

मुख्य लेख: चुआड़ विद्रोह
बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल एवं झारखंड में) के भूमिज आदिवासियों ने जगन्‍नाथ सिंह के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1833 तक चला।[2] इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह भी कहा जाता है।

बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में) के आदिवासी जमीनदारों, सरदारों, पाइकों और किसानों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जल, जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया, उसे ‘चुआड़ विद्रोह’ कहते हैं।[1] यह आन्दोलन 1834 तक चला,[2][3][4] यह विद्रोह मुख्यतः अंग्रेज़ों द्वारा जमींदारों की जमींदारी और पाइको की भूमि छीनने की विरोध में हुआ था। इसका नेतृत्व जगन्‍नाथ पातर, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह, रघुनाथ सिंह, सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह, रानी शिरोमणि, लक्ष्मण सिंह, बैजनाथ सिंह, लाल सिंह, रघुनाथ महतो[5][6][7][8] एवं अन्य जमींदारों ने अलग-अलग समय काल में किया। इतिहासकारों ने इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह और पाइक विद्रोह के नाम से भी लिखा है।[9][10][11][12][13] चुआड़ शब्द को नकारात्मक मानते हुए राजनीतिक दलों द्वारा इस विद्रोह को “जंगल महल आंदोलन” के नाम से पुकारे जाने का प्रस्ताव भी किया गया था।[14]

1832-33 में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया भूमिज विद्रोह को चुआड़ विद्रोह की ही हिस्सा मानी जाती है। जिसे अंग्रेजों ने ‘गंगा नारायण का हंगामा’ कहा है, जबकि कई इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह के नाम से दर्ज किया है।

चुआड़ लोग

चुआड़ अथवा चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ लुटेरा अथवा उत्पाती होता है। ब्रिटिश शासन काल में जंगल महल क्षेत्र के भूमिजों को चुआड़ (नीची जाति के लोग) कहा जाता था, उनका मुख्य पेशा पशु-पक्षियों का शिकार और जंगलों में खेती था लेकिन बाद में कुछ भूमिज जमींदार बन गए और कुछ सरदार घटवाल और पाईक (सिपाही) के रूप में कार्यरत थे।[15][16] जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल जिला में सर्वप्रथम मालगुजारी वसूलना शुरू किया गया, तब अंग्रेजों के इस षडयंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का सन् 1766 ई. में भूमिज जनजाति के लोगों द्वारा सबसे पहला विरोध किया गया और ब्रिटिश शासकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने पूछा, ये लोग कौन हैं, तो उनके पिट्ठू जमींदारों ने घृणा और अवमानना की दृष्टि से उन्हें ‘चुआड़’ (बंगाली में अर्थ – असभ्य या दुष्ट) कहकर संबोधित किया, तत्पश्चात उस विद्रोह का नाम ‘चुआड़ विद्रोह’ पड़ा।[17] भूमिजों के साथ-साथ इस विद्रोह में जंगल महल के बाउरी, कुड़मि महतो[18][19][20][21] और मुंडा समुदायों ने भी अपना समर्थन दिया था।

कई इतिहासकारों और मानव वैज्ञानिकों जैसे एडवर्ड टुइट डाल्टन, विलियम विलसन हन्टर, हर्बट होप रिस्ली, जे.सी. प्राइस, जगदीश चन्द्र झा, शरत चन्द्र राय, बिमला शरण, सुरजीत सिन्हा आदि ने भूमिज को ही चुआड़ कहा है।

विद्रोह की पृष्ठभूमि

इलाहाबाद की संधि (1765) में दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दी।[22] जंगल महाल के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र मराठा आक्रमण के बाद से ही काफ़ी ढीले-ढाले तरीके से शासित था और स्थानीय जमींदार, जिन्हें राजा कहा जाता था, कर वसूल कर वर्ष में एक बार केन्द्रीय सत्ता को भेजते थे।[23][24] कम्पनी द्वारा दीवानी अधिकार प्राप्त करने के बाद स्थानीय जमींदारों बेदखल कर नए जमींदारों को नियुक्त किया, जिनमे से कुछ ने अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार ली तथा कुछ ने उनका विद्रोह किया। सर्वप्रथम विद्रोह करने वालों में धालभूम और बड़ाभूम परगना की जमींदार और सरदार थे। जंगल महल में अपनी पकड़ बनाने की बाद से ही इसकी नीति अधिकतम संभव कर वसूली की रही। इस उद्देश्य में स्थानीय व्यवस्था को बाधक मानकर नयी प्रणालियाँ और नियामक (रेगुलेशन) लगाये जाने शुरू हुए और 1765 के बाद एक बिलकुल नए किस्म के कर युग का आरंभ हुआ जिससे स्थानीय व्यवस्था, स्थानीय लोग और जमींदार भी बर्बाद होने लगे।[25]

इस प्रकार स्थानीय चुआड़ (या भूमिज), जो पाईक थे, उन लोगों की जमीनों पर से उनके प्राकृतिक अधिकार समाप्त किये जाने से उनमें असंतोष व्याप्त था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो उन्हें बेदखल किये गए जमींदारों का नेतृत्व भी प्राप्त हो गया।[26]

विद्रोह
साल 1766 में जंगल महल के धलभूम और बड़ाभूम में इस विद्रोह का आरंभ हुआ, जो बाद में कुईलापाल, पातकुम, झालदा, पंचेत, बाघमुंडी, रायपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुष्मा, काशीपुर, मानभूम, मिदनापुर, बांकुड़ा और अंबिकानगर तक फैला।[27] 1768 में धालभूम में दामपाड़ा के जगन्‍नाथ सिंह पातर ने सर्वप्रथम भूमिजों के साथ विद्रोह किया। दिसंबर 1769 में 5000 भूमिजों ने सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह और जगन्नाथ पातर के नेतृत्व में धलभूम और बड़ाभूम में एक बड़ा विद्रोह किया।[28] 1770 में फिर सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह और बड़ाभूम के युवराज लक्ष्मण सिंह ने विद्रोह किया, लेकिन 1778 में इस विद्रोह को दबा दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने सुबल सिंह को पकड़कर फांसी देने का विशेष रूप से आदेश दिया और जनवरी 1770 को सुबल सिंह को पकड़कर फांसी दिया गया। चुआड़ लोगों ने मानभूम, रायपुर और पंचेत के आस-पास के क्षेत्रों में इस विद्रोह को तेज़ कर दिया था। 1782-84 में मंगल सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इस विद्रोह का नेतृत्व किया। 1787 से 1793 तक पूरे छोटानागपुर में अशांति का माहौल था। 1792 में चुआड़ विद्रोह पातकुम और बामनघाटी तक फैला। 1793 में भू-राजस्व का स्थायी बंदोबस्त के बाद बड़ाभूम परगना में लक्ष्मण सिंह ने एक बार बार फिर विद्रोह किया, उन्होंने 500 चुआड़ों के साथ पूरे क्षेत्र में हंगामा किया।[29] 1798-99 में दुर्जन सिंह, लाल सिंह और मोहन सिंह के नेतृत्व में चुआड़ विद्रोह अपने चरम पर था, लेकिन ब्रिटिश कंपनी की सेना ने उसे कुचल दिया। जगन्नाथ पातर के पुत्र बैजनाथ सिंह ने 1798-1810 में इस विद्रोह का नेतृत्व किया। 1810 में, बैजनाथ सिंह के हिंसक विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सेना को बुलाया गया था।[30]

साल 1799 के आरंभ में मिदनापुर के आसपास के तीन स्थानों पर चुआड़ लोग संगठित हुए: बहादुरपुर, सालबनी और कर्णगढ़।[31] यहाँ से उन्होंने गोरिल्ला हमले शुरू किये। इनमे से कर्णगढ़ में रानी शिरोमणि[32] का आवास था। तत्कालीन कलेक्टर के लिखे पत्र के अनुसार, चुआड़ विद्रोह बढ़ता गया और फ़रवरी 1799 तक मिदनापुर के आसपास के कई गाँवो के सतत् विस्तृत इलाके पर इनका कब्ज़ा हो गया। मार्च में, रानी ने तकरीबन 300 विद्रोहियों के साथ हमला किया और कर्णगढ़ के गढ़ (स्थानीय किले) में कंपनी के सिपाहियों के सारे हथियार लूट लिए।[33] हमलों और लूट का यह क्रम दिसम्बर 1799 तक चलता रहा। बाद में, जगन्नाथ सिंह के पोते रघुनाथ सिंह ने 1833 तक विद्रोह का नेतृत्व किया।[34] जमींदारों, सरदार घाटवालों, पाइको और किसानों का यह विद्रोह 1766 से 1832 तक रुक-रुक कर पूरे जंगल महल और आसपास के इलाकों में जारी रहा।

1832-33 में, गंगा नारायण सिंह ने सभी भूमिजों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसे अंग्रेजों ने ‘गंगा नारायण का हंगामा’ कहा। जबकि कई इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह या भूमिज विद्रोह के नाम से लिखा।

चुआड़ विद्रोह के नायक

जगन्‍नाथ सिंह पातर, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह[35], सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह, लक्ष्मण सिंह (बड़ाभूम), रानी शिरोमणि, बैद्यनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह, रघुनाथ महतो[36][37], मंगल सिंह, लाल सिंह, राजा मोहन सिंह, राजा मधु सिंह, लक्ष्मण सिंह (दलमा), सुंदर नारायण सिंह, फतेह सिंह, मनोहर सिंह, अचल सिंह और अन्य जमींदारों ने भूमिज, मुंडा, कोल आदिवासियों के साथ अलग-अलग समय काल में इस विद्रोह का नेतृत्व किया।

संन्यासी एवं फकीर विद्रोह (सन् 1763 से 1773 तक)

मुख्य लेख: सन्यासी विद्रोह
बंगाल में संन्यासियों और फकीरों के अलग-अलग संगठन थे। पहले तो इन दोनों संगठनों ने मिलकर अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया; लेकिन बाद में उन्होंने पृथक्-पृथक् रूप से विरोध किया। संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं—मोहन गिरि और भवानी पाठक तथा फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है। ये लोग पचास-पचास हजार सैनिकों के साथ अंग्रेजी सेना पर आक्रमण करते थे। अंग्रेजों की कई कोठियाँ इन लोगों ने छीन लीं और कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह और फकीर विद्रोह—दोनों ही दबा दिए गए।

अट्ठारहवीँ सदी के अन्तिम वर्षों 1763-1800ई में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध तत्कालीन भारत के कुछ भागों में संन्यासियों (केना सरकार , दीजी नारायण) ने उग्र आन्दोलन किये थे जिसे इतिहास में संन्यासी विद्रोह कहा जाता है।[1] [2] यह आन्दोलन अधिकांशतः उस समय ब्रिटिश भारत के बंगाल और बिहार प्रान्त में हुआ था। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के पत्र व्यवहार में कई बार फकीरों और संन्यासियों के छापे का जिक्र हुआ है। यह छापा उत्तरी बंगाल में पड़ते थे। 1770 ईस्वी में पड़े बंगाल में भीषण अकाल के कारण हिंदू और मुस्लिम यहां वहां घूम कर अमीरों तथा सरकारी अधिकारियों के घरों एवं अन्न भंडार को लूट लिया करते थे। ये संन्यासी धार्मिक भिक्षुक थे पर मूलतः वह किसान थे, जिसकी जमीन छीन ली गई थी। किसानों की बढ़ती दिक्कतें, बढ़ती भू राजस्व, 1770 ईस्वी में पड़े अकाल के कारण छोटे-छोटे जमींदार, कर्मचारी, सेवानिवृत्त सैनिक और गांव के गरीब लोग इन संन्यासी दल में शामिल हो गए। यह बंगाल और बिहार में पांच से सात हजार लोगों का दल बनाकर घूमा करते थे और आक्रमण के लिए गोरिल्ला तकनीक अपनाते थे। आरंभ में यह लोग अमीर व्यक्तियों के अन्न भंडार को लूटा करते थे। बाद में सरकारी पदाधिकारियों को लूटने लगे और सरकारी खजाने को भी लूटा करते थे। कभी-कभी ये लुटे हुए पैसे को गरीबों में बांट देते थे। समकालीन सरकारी रिकॉर्ड में इस विद्रोह का उल्लेख इस प्रकार है:- “सन्यासी और फकीर के नाम से जाने जाने वाले डकैतो का एक दल है जो इन इलाकों में अव्यवस्था फैलाए हुए हैं और तीर्थ यात्रियों के रूप में बंगाल के कुछ हिस्सों में भिक्षा और लूटपाट मचाने का काम करते हैं क्योंकि यह उन लोगों के लिए आसान काम है। अकाल के बाद इनकी संख्या में अपार वृद्धि हुई। भूखें किसान इनके दल में शामिल हो गए, जिनके पास खेती करने के लिए न ही बीज था और न ही साधन। 1772 की ठंड में बंगाल के निचले भूमि की खेती पर इन लोगों ने काफी लूटपाट मचाई थी। 50 से लेकर 1000 तक का दल बनाकर इन लोगों ने लूटने, खसोटने और जलाने का काम किया।”[3]

यह बंगाल के गिरि सम्प्रदाय के संन्यासियों द्वारा शुरू किया गया था। जिसमें जमींदार, कृषक तथा शिल्पकारों ने भी भाग लिया। इन सबने मिलकर कम्पनी की कोठियों और कोषों पर आक्रमण किये। ये लोग कम्पनी के सैनिकों से बहुत वीरता से लड़े।

इस संघर्ष की खासियत यह थी कि इसमें हिंदू और मुसलमान ने कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया। इन विद्रोह के प्रमुख नेताओं में केना सरकार, दिर्जिनारायण, मंजर शाह,देवी चौधरानी, मूसा शाह, भवानी पाठक उल्लेखनीय है। 1880 ईस्वी तक बंगाल और बिहार में अंग्रेजो के साथ संन्यासी और फकीरों का विद्रोह होता रहा। इन विद्रोह का दमन करने के लिए अंग्रेजों ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी।

विद्रोह के समर्थक शंकराचार्य के अनुन्यायी थे।

बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का सन १८८२ में रचित उपन्यास आनन्द मठ इसी विद्रोह की घटना[4] पर आधारित है।

संन्यासी विद्रोहियों ने अपनी स्वतंत्र सरकार बोग्रा और मैमनसिंह में स्थापित किया । इनकी आक्रमण पद्धति गोरिल्ला युद्ध पर आधारित थी।

बंगाल का द्वितीय सैनिक विद्रोह (सन् 1795)

बंगाल की पंद्रहवीं बटालियन को आदेश मिला कि वह ‘हमलक’ के स्थान पर पहुँच जाए। बटालियन वहाँ पहुँच गई। वहाँ पर उस बटालियन को बताया गया कि उसे जहाज पर चढ़कर यूरोप जाना है। यूरोप में इस बटालियन को डच लोगों के साथ युद्ध करना था। भारतीय सैनकों ने जहाज पर चढ़ने से इनकार कर दिया। उनमें से कुछ को गोलियों से भून दिया गया और कुछ को तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया। बंगाल प्रेसीडेंसी, आधिकारिक तौर पर फोर्ट विलियम और बाद में बंगाल प्रांत का राष्ट्रपति पद जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपखंड था । अपने क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार की ऊंचाई पर, यह क्या अब दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया है के बड़े हिस्से को कवर किया । बंगाल ने बंगाल के नृवंश-भाषाई क्षेत्र (वर्तमान बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल) को उचित रूप से कवर किया। कलकत्ता, जो फोर्ट विलियम के आसपास बढ़ा, बंगाल प्रेसीडेंसी की राजधानी थी। कई वर्षों तक बंगाल के राज्यपाल भारत के वायसराय के साथ-साथ थे और कलकत्ता बीसवीं सदी की शुरुआत तक भारत की वास्तविक राजधानी थी ।

चुआड़ विद्रोह (सन् 1798 से 1831 तक)

मुख्य लेख: चुआड़ विद्रोह
बंगाल की भूमिज जनजाति को चुआड़ कहा जाता था। चुआड़ विद्रोह इसी जनजाति का विद्रोह था। यह जनजाति जंगल महल जिले के भिन्न-भिन्न परगनों में रहती थी। कई स्थानों पर चुआड़ वीरों ने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका। बाद में संगठित होकर अंग्रेजी सेना ने बड़ी निर्ममता से इस विद्रोह का दमन कर दिया। 1798 में ‘दुर्जन सिंह’ ने विद्रोह किया। ‘रानी शिरोमणि’ नाम की एक महिला विद्रोही ने भी अच्छी वीरता का प्रदर्शन किया। बाद में वह बंदी बना ली गई।[4] यह 1766 की चुआड़ विद्रोह से सम्बन्धित है जो 1833 तक चला, इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह भी कहा जाता है।

बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में) के आदिवासी जमीनदारों, सरदारों, पाइकों और किसानों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जल, जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया, उसे ‘चुआड़ विद्रोह’ कहते हैं।[1] यह आन्दोलन 1834 तक चला,[2][3][4] यह विद्रोह मुख्यतः अंग्रेज़ों द्वारा जमींदारों की जमींदारी और पाइको की भूमि छीनने की विरोध में हुआ था। इसका नेतृत्व जगन्‍नाथ पातर, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह, रघुनाथ सिंह, सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह, रानी शिरोमणि, लक्ष्मण सिंह, बैजनाथ सिंह, लाल सिंह, रघुनाथ महतो[5][6][7][8] एवं अन्य जमींदारों ने अलग-अलग समय काल में किया। इतिहासकारों ने इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह और पाइक विद्रोह के नाम से भी लिखा है।[9][10][11][12][13] चुआड़ शब्द को नकारात्मक मानते हुए राजनीतिक दलों द्वारा इस विद्रोह को “जंगल महल आंदोलन” के नाम से पुकारे जाने का प्रस्ताव भी किया गया था।[14]

1832-33 में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया भूमिज विद्रोह को चुआड़ विद्रोह की ही हिस्सा मानी जाती है। जिसे अंग्रेजों ने ‘गंगा नारायण का हंगामा’ कहा है, जबकि कई इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह के नाम से दर्ज किया है।

चुआड़ लोग
चुआड़ अथवा चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ लुटेरा अथवा उत्पाती होता है। ब्रिटिश शासन काल में जंगल महल क्षेत्र के भूमिजों को चुआड़ (नीची जाति के लोग) कहा जाता था, उनका मुख्य पेशा पशु-पक्षियों का शिकार और जंगलों में खेती था लेकिन बाद में कुछ भूमिज जमींदार बन गए और कुछ सरदार घटवाल और पाईक (सिपाही) के रूप में कार्यरत थे।[15][16] जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल जिला में सर्वप्रथम मालगुजारी वसूलना शुरू किया गया, तब अंग्रेजों के इस षडयंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का सन् 1766 ई. में भूमिज जनजाति के लोगों द्वारा सबसे पहला विरोध किया गया और ब्रिटिश शासकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने पूछा, ये लोग कौन हैं, तो उनके पिट्ठू जमींदारों ने घृणा और अवमानना की दृष्टि से उन्हें ‘चुआड़’ (बंगाली में अर्थ – असभ्य या दुष्ट) कहकर संबोधित किया, तत्पश्चात उस विद्रोह का नाम ‘चुआड़ विद्रोह’ पड़ा।[17] भूमिजों के साथ-साथ इस विद्रोह में जंगल महल के बाउरी, कुड़मि महतो[18][19][20][21] और मुंडा समुदायों ने भी अपना समर्थन दिया था।

कई इतिहासकारों और मानव वैज्ञानिकों जैसे एडवर्ड टुइट डाल्टन, विलियम विलसन हन्टर, हर्बट होप रिस्ली, जे.सी. प्राइस, जगदीश चन्द्र झा, शरत चन्द्र राय, बिमला शरण, सुरजीत सिन्हा आदि ने भूमिज को ही चुआड़ कहा है।

विद्रोह की पृष्ठभूमि
इलाहाबाद की संधि (1765) में दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दी।[22] जंगल महाल के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र मराठा आक्रमण के बाद से ही काफ़ी ढीले-ढाले तरीके से शासित था और स्थानीय जमींदार, जिन्हें राजा कहा जाता था, कर वसूल कर वर्ष में एक बार केन्द्रीय सत्ता को भेजते थे।[23][24] कम्पनी द्वारा दीवानी अधिकार प्राप्त करने के बाद स्थानीय जमींदारों बेदखल कर नए जमींदारों को नियुक्त किया, जिनमे से कुछ ने अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार ली तथा कुछ ने उनका विद्रोह किया। सर्वप्रथम विद्रोह करने वालों में धालभूम और बड़ाभूम परगना की जमींदार और सरदार थे। जंगल महल में अपनी पकड़ बनाने की बाद से ही इसकी नीति अधिकतम संभव कर वसूली की रही। इस उद्देश्य में स्थानीय व्यवस्था को बाधक मानकर नयी प्रणालियाँ और नियामक (रेगुलेशन) लगाये जाने शुरू हुए और 1765 के बाद एक बिलकुल नए किस्म के कर युग का आरंभ हुआ जिससे स्थानीय व्यवस्था, स्थानीय लोग और जमींदार भी बर्बाद होने लगे।[25]

इस प्रकार स्थानीय चुआड़ (या भूमिज), जो पाईक थे, उन लोगों की जमीनों पर से उनके प्राकृतिक अधिकार समाप्त किये जाने से उनमें असंतोष व्याप्त था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो उन्हें बेदखल किये गए जमींदारों का नेतृत्व भी प्राप्त हो गया।[26]

विद्रोह
साल 1766 में जंगल महल के धलभूम और बड़ाभूम में इस विद्रोह का आरंभ हुआ, जो बाद में कुईलापाल, पातकुम, झालदा, पंचेत, बाघमुंडी, रायपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुष्मा, काशीपुर, मानभूम, मिदनापुर, बांकुड़ा और अंबिकानगर तक फैला।[27] 1768 में धालभूम में दामपाड़ा के जगन्‍नाथ सिंह पातर ने सर्वप्रथम भूमिजों के साथ विद्रोह किया। दिसंबर 1769 में 5000 भूमिजों ने सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह और जगन्नाथ पातर के नेतृत्व में धलभूम और बड़ाभूम में एक बड़ा विद्रोह किया।[28] 1770 में फिर सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह और बड़ाभूम के युवराज लक्ष्मण सिंह ने विद्रोह किया, लेकिन 1778 में इस विद्रोह को दबा दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने सुबल सिंह को पकड़कर फांसी देने का विशेष रूप से आदेश दिया और जनवरी 1770 को सुबल सिंह को पकड़कर फांसी दिया गया। चुआड़ लोगों ने मानभूम, रायपुर और पंचेत के आस-पास के क्षेत्रों में इस विद्रोह को तेज़ कर दिया था। 1782-84 में मंगल सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इस विद्रोह का नेतृत्व किया। 1787 से 1793 तक पूरे छोटानागपुर में अशांति का माहौल था। 1792 में चुआड़ विद्रोह पातकुम और बामनघाटी तक फैला। 1793 में भू-राजस्व का स्थायी बंदोबस्त के बाद बड़ाभूम परगना में लक्ष्मण सिंह ने एक बार बार फिर विद्रोह किया, उन्होंने 500 चुआड़ों के साथ पूरे क्षेत्र में हंगामा किया।[29] 1798-99 में दुर्जन सिंह, लाल सिंह और मोहन सिंह के नेतृत्व में चुआड़ विद्रोह अपने चरम पर था, लेकिन ब्रिटिश कंपनी की सेना ने उसे कुचल दिया। जगन्नाथ पातर के पुत्र बैजनाथ सिंह ने 1798-1810 में इस विद्रोह का नेतृत्व किया। 1810 में, बैजनाथ सिंह के हिंसक विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सेना को बुलाया गया था।[30]

साल 1799 के आरंभ में मिदनापुर के आसपास के तीन स्थानों पर चुआड़ लोग संगठित हुए: बहादुरपुर, सालबनी और कर्णगढ़।[31] यहाँ से उन्होंने गोरिल्ला हमले शुरू किये। इनमे से कर्णगढ़ में रानी शिरोमणि[32] का आवास था। तत्कालीन कलेक्टर के लिखे पत्र के अनुसार, चुआड़ विद्रोह बढ़ता गया और फ़रवरी 1799 तक मिदनापुर के आसपास के कई गाँवो के सतत् विस्तृत इलाके पर इनका कब्ज़ा हो गया। मार्च में, रानी ने तकरीबन 300 विद्रोहियों के साथ हमला किया और कर्णगढ़ के गढ़ (स्थानीय किले) में कंपनी के सिपाहियों के सारे हथियार लूट लिए।[33] हमलों और लूट का यह क्रम दिसम्बर 1799 तक चलता रहा। बाद में, जगन्नाथ सिंह के पोते रघुनाथ सिंह ने 1833 तक विद्रोह का नेतृत्व किया।[34] जमींदारों, सरदार घाटवालों, पाइको और किसानों का यह विद्रोह 1766 से 1832 तक रुक-रुक कर पूरे जंगल महल और आसपास के इलाकों में जारी रहा।

1832-33 में, गंगा नारायण सिंह ने सभी भूमिजों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसे अंग्रेजों ने ‘गंगा नारायण का हंगामा’ कहा। जबकि कई इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह या भूमिज विद्रोह के नाम से लिखा।

चुआड़ विद्रोह के नायक

जगन्‍नाथ सिंह पातर, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह[35], सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह, लक्ष्मण सिंह (बड़ाभूम), रानी शिरोमणि, बैद्यनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह, रघुनाथ महतो[36][37], मंगल सिंह, लाल सिंह, राजा मोहन सिंह, राजा मधु सिंह, लक्ष्मण सिंह (दलमा), सुंदर नारायण सिंह, फतेह सिंह, मनोहर सिंह, अचल सिंह और अन्य जमींदारों ने भूमिज, मुंडा, कोल आदिवासियों के साथ अलग-अलग समय काल में इस विद्रोह का नेतृत्व किया।

वेल्लौर का सैनिक विद्रोह (सन् 1803)

मुख्य लेख: वेल्लोर विद्रोह
वेल्लौर स्थित मद्रासी सेना ने भी अंग्रेजों के विरुद्र विद्रोह कर दिया। वह विद्रोह नंदी दुर्ग, सँकरी दुर्ग आदि स्थानों तक फैल गया। इसी विद्रोह के फलस्वरूप लॉर्ड विलियम वेंटिक को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। वेल्लोर विद्रोह 10 जुलाई 1806 को मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) राज्य के शहर वेल्लोर में हुआ था। यह ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भारतीय सिपाहियों द्वारा बड़े पैमाने पर और हिंसक विद्रोह का पहला उदाहरण था, जो १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से भी आधी सदी पहले घटित हुआ था। दक्षिण भारतीय शहर वेल्लोर में यह विद्रोह एक पूर्ण दिन चला, जिसके दौरान विद्रोहियों ने वेल्लोर किले पर क़ब्ज़ा कर लिया और 200 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला या घायल कर दिया। विद्रोह को आरकाट राज्य के घुड़सवारों और तोपखाने की बदौलत दबाया जा सका। प्रकोप के दमन के दौरान लगभग 600 लोग मारे गए, और इसके बाद 100 विद्रोहियों को सज़ा-ए-मौत सुनाई गई। इसके अलावा कई विद्रोही सैनिकों का औपचारिक रूप से कोर्ट-मार्शल भी किया गया।

कारण

विद्रोह के तत्काल कारण मुख्य रूप से भारतीय सैनिकों की नाराज़गी थी, जो नवंबर 1805 में पेश किए गए सिपाही ड्रेस कोड में बदलाव की वजह से थी। हिंदुओं को उनके माथे पर तिलक लगाने और धार्मिक वस्त्र पहनने से मना कर दिया गया था और मुस्लिमों को अपने दाढ़ी और अपने मूंछों को ट्रिम करना अनिवार्य कर दिया गया था। इसके अलावा मद्रास सेना के कमांडर-इन-चीफ जनरल सर जॉन क्रैडॉक ने [1] उस समय एक दौर टोपी पहनने का आदेश दिया जो उस समय से जुड़े थे, जो यूरोपीय और सामान्य रूप से ईसाई धर्म में परिवर्तित भारतीयों को पहनना था। [1] इन्ग्लिस्तानी फौज का इरादा था कि सरों पर पहनने की नई टोपियों में चमड़ा लगा था, जो अब उन्हें पगड़ी की जगह पहननी थी। इन बदलावों ने हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाही की संवेदनशीलताओं को आहत किया और यह सैन्य बोर्ड की चेतावनी के विपरीत चला गया कि सिपाहियों की यूनफ़ॉर्म में परिवर्तन “बहुत सोच-समझकर करना चाहिए जो उस संवेदनशील मुद्दे के लिए आवश्यक है”। [1]

इन परिवर्तनों का उद्देश्य पुरुषों की “सैनिक उपस्थिति” में सुधार करने के उद्देश्य से भारतीय सैनिकों के बीच मजबूत असंतोष पैदा हुआ। मई 1806 में कुछ सिपाही जिन्होंने नए नियमों का विरोध किया था उन्हें फोर्ट सेंट जॉर्ज (मद्रास, अब चेन्नई ) भेजा गया था। उनमें से दो – एक हिंदू और एक मुस्लिम – प्रत्येक को 90 लाश दिए गए और सेना से खारिज कर दिया गया। उन्नीस सीपॉय को 50 लाशों के साथ दंडित किया गया और ईस्ट इंडिया कंपनी से क्षमा मांगने के लिए मजबूर किया गया। [2][3]

ऊपर सूचीबद्ध सैन्य शिकायतों के अलावा, 1799 के बाद से वेल्लोर में सीमित पराजित टीपू सुल्तान के पुत्रों द्वारा विद्रोह भी प्रेरित किया गया था। टीपू की पत्नियां और बेटे, कई रखरखाव के साथ, ईस्ट इंडिया कंपनी के पेंशन भोगी थे और वेल्लोर किले के एक बड़े परिसर में महल में समेत रहते थे । 9 जुलाई 1806 को टीपू सुल्तान की बेटियों में से एक का विवाह होना था, और शादी में भाग लेने के बहस के तहत किले में इकट्ठे हुए विद्रोहियों के प्लॉटर्स एकत्र हुए। नागरिक षड्यंत्रकारियों के उद्देश्य अस्पष्ट रहते हैं लेकिन किले को पकड़कर और पकड़कर वे शायद पूर्व मैसूर सल्तनत के क्षेत्र के माध्यम से सामान्य बढ़ने को प्रोत्साहित करने की उम्मीद कर सकते हैं। [4] हालांकि, विद्रोह के बाद टिपू के बेटे चार्ज करने के लिए अनिच्छुक थे। [5]

प्रकोप

जुलाई 1806 में वेल्लोर किले के गैरीसन ने एचएम 69 वें (दक्षिण लिंकनशायर) रेजिमेंट ऑफ फुट और मद्रास पैदल सेना के तीन बटालियनों से ब्रिटिश पैदल सेना की चार कंपनियों को शामिल किया: पहला / पहला, दूसरा / पहला और दूसरा / 23 वां मद्रास मूल इन्फैंट्री। [6]

10 जुलाई को मध्यरात्रि के दो घंटे बाद, सिपाही ने अपने स्वयं के अधिकारियों के चौदह और 69 वें रेजिमेंट के 115 पुरुष मारे गए, [7] बाद में वे अपने बैरकों में सो गए। मारे गए लोगों में से किले के कमांडर कर्नल सेंट जॉन फंचोर्ट थे। विद्रोहियों ने सुबह तक नियंत्रण जब्त कर लिया, और किले पर मैसूर सल्तनत के झंडे को उठाया। टीपू के दूसरे बेटे फतेह हैदर को राजा घोषित किया गया था।

हालांकि, एक ब्रिटिश अधिकारी, मेजर कूप, बच निकला और आर्कोट में सेना को सतर्क कर दिया। विद्रोह के फैलने के नौ घंटे बाद, ब्रिटिश 1 9वीं लाइट ड्रैगन , गैलपर बंदूकें और मद्रास कैवेलरी के एक स्क्वाड्रन में एक राहत बल, आर्कोट से वेल्लोर तक पहुंचा, जिसमें लगभग दो घंटे में 16 मील (26 किमी) शामिल था। इसका नेतृत्व सर रोलो गिलेस्पी (उस समय भारत में सबसे सक्षम और ऊर्जावान अधिकारियों में से एक) के नेतृत्व में हुआ था, जिन्होंने चेतावनी दी थी कि अलार्म उठाए जाने के एक घंटे के भीतर आर्कोट छोड़ दिया गया था। गिल्सपी ने लगभग बीस पुरुषों के एक दल के साथ मुख्य बल से आगे डैश किया। [8]

वेल्लोर पहुंचे, गिलेस्पी ने जीवित यूरोपीय लोगों को पाया, जो 69 वें के साठ पुरुष थे, एनसीओ और दो सहायक सर्जनों द्वारा आदेश दिया गया था, अभी भी रैंपर्ट का हिस्सा है लेकिन गोला बारूद से बाहर है। रक्षा किए गए द्वार के माध्यम से प्रवेश पाने में असमर्थ, गिलेस्पी ने रस्सी की सहायता से दीवार पर चढ़ाई की और एक सर्जेंट की सैश जो उसे कम कर दी गई थी; और, समय प्राप्त करने के लिए, रैंपर्ट के साथ एक बैयोनेट-चार्ज में 69 वें स्थान पर पहुंचे। जब शेष 19 वीं पहुंचे, तो गिलेस्पी ने उन्हें अपने गलियारे बंदूक के साथ द्वार खोलने के लिए उड़ा दिया, और प्रवेश द्वार के अंदर एक जगह साफ़ करने के लिए द्वार के साथ दूसरा चार्ज बनाया ताकि घुड़सवार को तैनात किया जा सके। 19 वीं और मद्रास कैवेलरी ने तब आरोप लगाया और किसी भी सीपॉय को अपने रास्ते में खड़ा कर दिया। महल के अंदर शरण पाने वाले लगभग 100 सिपाही लाए गए, और गिलेस्पी के आदेश से, दीवार के खिलाफ रखा गया और गोली मार दी गई। गेट्स में उड़ाए गए अभियंता जॉन ब्लैकिस्टन ने याद किया: “यहां तक ​​कि इस भयानक दृष्टि को मैं देख सकता था, मैं लगभग कह सकता हूं, यह संक्षेप में है। यह सारांश न्याय का एक अधिनियम था, और हर सम्मान में सबसे उचित एक है, फिर भी , इस समय की दूरी पर, मुझे कार्य को स्वीकार करने के लिए एक कठिन मामला मिल रहा है, या उस भावना के लिए जिम्मेदार है जिसके तहत मैंने इसे देखा “।

सिपाही से जुड़े कठोर प्रतिशोध ने स्ट्रोक पर अशांति को तोड़ दिया और भारत में अंग्रेजों का इतिहास अपने असली महाकाव्यों में से एक के साथ प्रदान किया; क्योंकि, गिलेस्पी ने स्वीकार किया कि, पांच मिनट की देरी के साथ, सभी अंग्रेजों के लिए खो गए होंगे। कुल मिलाकर, लगभग 350 विद्रोही मारे गए थे, और लड़ाई समाप्त होने से पहले एक और 350 घायल हो गए थे।

बाद में

ईस्ट इंडिया कंपेनी द्वारा औपचारिक परीक्षण के बाद, भारत के छह विद्रोहियों को बंदूक चला कर उनको मार दिया गया, उन में से फायरिंग दस्ते द्वारा पांच शॉट, आठ फांसी और पांच परिवहन द्वारा मार दिये गए। विद्रोह में शामिल तीन मद्रास बटालियन सभी तोड़ दिए गए थे। आक्रामक ड्रेस नियमों के लिए ज़िम्मेदार वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों को इंग्लैंड को याद किया गया, जिसमें मद्रास आर्मी के कमांडर-इन-चीफ जॉन क्रैडॉक भी शामिल थे, कंपनी ने अपने मार्ग का भुगतान करने से इनकार कर दिया। ‘नए टर्बन्स’ (गोल टोपी) के बारे में आदेश भी रद्द कर दिए गए थे।

घटना के बाद, वेल्लोर किले में कैद किए गए रॉयल्स को कलकत्ता स्थानांतरित कर दिया गया। मद्रास के राज्यपाल विलियम बेंटिनक को भी याद किया गया था, कंपनी के निदेशक मंडल ने खेद व्यक्त किया था कि “आदरणीय भावनाओं को लागू करने के लिए गंभीरता के उपायों को लागू करने से पहले असली भावनाओं और सिपाही के स्वभावों की जांच में अधिक सावधानी और सावधानी बरतनी नहीं थी। नई पगड़ी का उपयोग। ” सिपाही के सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ विवादास्पद हस्तक्षेप भी समाप्त हो गया था, जैसा भारतीय रेजिमेंट्स में फंस रहा था। [10][11]

वेल्लोर विद्रोह और 1857 के भारतीय विद्रोह के बीच कुछ समानांतर हैं, हालांकि बाद वाला बहुत बड़ा पैमाने पर था। 1857 में सिपाही ने बहादुर शाह को भारत के सम्राट के रूप में पुन: स्थापित करके मुगल शासन की वापसी की घोषणा की; वैसे ही लगभग 50 साल पहले वेल्लोर के विद्रोहियों ने टीपू सुल्तान के पुत्रों को सत्ता बहाल करने का प्रयास किया था। धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं (चमड़े के सिरदर्द और greased कारतूस के रूप में) के लिए अनुमानित असंवेदनशीलता दोनों विद्रोहों में एक कारक था। 1857 की घटनाओं (जिसमें बंगाल सेना शामिल थी और मद्रास सेना को प्रभावित नहीं किया) ने ब्रिटिश क्राउन को भारत सरकार अधिनियम 1858 के माध्यम से भारत के भीतर कंपनी की संपत्ति और कार्यों को संभालने का कारण बना दिया, जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के कुल विघटन को देखा। [12]

विद्रोह के वास्तविक प्रकोप का एकमात्र जीवित प्रत्यक्षदर्शी खाता अमेलीया फररर, लेडी फैनकोर्ट (किले के कमांडर सेंट जॉन फंचोर्ट की पत्नी) का है। नरसंहार के दो हफ्ते बाद लिखा गया उसका पांडुलिपि खाता बताता है कि उसके पति के रूप में वह और उसके बच्चे कैसे बच गए। [13]

वेलू थाम्पी का संघर्ष (1808-9)

साम्राज्यवाद के विरुद्ध थाम्पी के संघर्ष को ‘पहला राष्ट्रीय संघर्ष’ कहा जाता है। वेलू थाम्पी त्रावणकोर राज्य का एक मंत्री था। शुरू में त्रावणकोर राज्य की ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मैत्री थी और इस राज्य ने टीपू सुल्तान के विरुद्ध कम्पनी का साथ दिया। वेलू थाम्पी का मानना था कि यदि कम्पनी को बिना रोक-टोक करने दिया गया तो एक दिन त्रावणकोर के व्यापार पर इसका एकाधिकार हो जायेगा। फिर जैसा कम्पनी चाहेगी वैसा करेगी। वेलू ने एक घोषणा की “जो कुछ वह करने की कोशिश कर रहे हैं यदि उसका प्रतिरोध इस समय नहीं किया गया तो हमारी जनता को कष्टों का सामना करना पड़ेगा जिन्हें मनुष्य सहन नहीं कर सकते हैं।” इस घोषणा का जनता पर बहुत गहरा असर पड़ा और हजारों हथियारबंद लोग उसके साथ आ गये। इस संघर्ष में त्रावणकोर के शासक और कोचीन राज्य के मंत्री पालियाथ आचन ने भी वेलू का साथ दिया। परन्तु बाद में आचन ने धोका दे दिया। उत्तरी मालाबार में पज्हासी (Pazhassi) ने कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया। थम्पी, आचन और पज्हासी के संघर्ष सामन्ती वर्ग के नेतृत्व में चलने वाले संघर्ष थे।

भील विद्रोह (1817)

1817 ई. में पश्चिमी तट के खानदेश (अब गुजरात) में रहने वाली भील जनजाति ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। 1825 में भीलों ने सेवाराम के नेतृत्व में पुनः विद्रोह किया। अंग्रेजों के अनुसार इस विद्रोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्यम्बकजी दांगलिया ने बढ़ावा दिया था।[6]

नायक विद्रोह (सन् 1821)

इसी समय बगड़ी राज्य की नायक जाति ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया। अचल सिंह इस जाति का नेता था। गनगनी नामक स्थान पर अचल सिंह और अंग्रेज अफसर ओकेली की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर से बहुत जनहानि हुई। एक गद्दार के छल से अचल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया।

बैरकपुर का प्रथम सैनिक विद्रोह (सन् 1824)

यह नायक विद्रोह और बहावी विद्रोह के बीच की कड़ी है। बंगाल रेजीमेंट को आदेश मिला कि वह बैलों की पीठ पर बैठकर हुगली नदी पार करें। रेजीमेंट ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया। सारे सैनिकों को निहत्था करके भून डाला गया।

कोल विद्रोह (सन् 1831-33)

मुख्य लेख: कोल विद्रोह

यह विद्रोह कोल जनजाति द्वारा अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ 1831 ईसवी में किया गया एक विद्रोह है, जो 1833 तक चला। मुंडा, उरांव, भूमिज और हो आदिवासियों को अंग्रेजों द्वारा कोल कहा जाता था। यह विद्रोह बाहरी हिन्दू, मुस्लिम, सिख और अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया था। इस विद्रोह की शुरुआत मुंडा-मानकी द्वारा किया गया था।

कोल विद्रोह झारखंड के कोल जनजाति द्वारा अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ 1831 ईसवी में किया गया एक विद्रोह है, जो 1833 तक चला। यह भारत में अंग्रेजों के खिलाफ किया गया एक महत्वपूर्ण विद्रोह है। यह विद्रोह अंग्रेजों और बाहरी लोगों (दिकु) के शोषण का बदला लेने के लिए किया गया था।[1] मुंडा, उरांव, भूमिज और हो आदिवासियों को अंग्रेजों द्वारा कोल कहा जाता था।[2] इस जाति के लोग छोटा नागपुर के पठार इलाकों में सदियों से शांतिपूर्वक रहते आए थे। उनकी जीविका का मुख्य आधार खेती और जंगल थे। ये जंगलों की सफाई कर बंजर जमीन को खेती लायक बनाकर उस पर खेती करते थे। इसलिए वे जमीन पर अपना नैसर्गिक अधिकार मानते थे। कोलों की जीवन शैली में मध्यकाल में परिवर्तन आने लगा।[3]

मुगल काल में बहुत से व्यापारी और अन्य लोग आकर आदिवासी इलाकों में बसने लगे। मुसलमान और सिक्ख व्यापारीयों का आगमन बड़ी संख्या में हुआ। इन लोगों ने धीरे-धीरे जमीन पर अपना अधिकार जमाना आरंभ किया परंतु मुगल काल तक कोल जाति के सामाजिक, आर्थिक जीवन पर इन परिवर्तन का कोई व्यापक असर नहीं पड़ा। बंगाल में अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही कोल जाति के लोगों के आर्थिक जीवन में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन आ गया।[4] स्थाई बंदोबस्त के कारण इस क्षेत्र में नए जमींदार एवं महाजन का एक सबल वर्ग सामने आया। इसके साथ इनके कर्मचारी भी आए। इन सभी ने मिलकर कोल जाति के लोगों का शारीरिक एवं आर्थिक शोषण आरंभ कर दिया। लगान की रकम अदा न करने पर उनकी जमीन नीलाम करवा दी जाती थी। इन बाहरी लोगों ने कोल की बहू बेटियों की इज्जत भी लूटनी आरंभ कर दी। कोल के बेगारी भी करना पड़ता था एवं उनकी स्त्रियों को जमींदारों महाजनों के घर काम करने के लिए बाध्य किया जाता था।[5]

इन अत्याचारों से इनकी सुरक्षा करने वाला कोई नहीं था। थाना और न्यायालय भी जमींदारों एवं महाजनों का ही साथ देते थे। इस जाति का मुखिया नि:सहाय था। इनका जीवन एक अभिशाप बन गया था। उनका आक्रोश जमींदार, महाजन, पुलिस के विरुद्ध बढ़त गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनकी भूमि को गैर आदिवासी लोगों को दे दिया। अतः उन पर जमींदारों, महाजनों और सूदखोरों का अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। अतः 1831 ईसवी में बाहरी गैर आदिवासी (हिन्दू, मुसलमान और सिख) लोगों के विरुद्ध मुंडा, मानकी, सरदार और भगत के नेतृत्व में उन्होंने विद्रोह किया। इस विद्रोह में छोटानागपुर के मुंडा, उरांव और अन्य आदिवासी समुदायों के साथ पातकुम के भूमिज, सिंहभूम के हो और पलामू के चेरो और खरवार समुदाय ने हिस्सा लिया था। इस विद्रोह का नेतृत्व बिंदराय मानकी, सिंहराय (सुदगांव के मानकी), सिंहराय (कुचांग के मानकी), लखी दास, दसाई मानकी, कार्तिक सरदार, खांडू पातर, मोहन मानकी, सागर मानकी, सुर्गा मुंडा, नागु पाहान, बुधू भगत, जोआ भगत, भूतनाथ साही, दाखिन साही, मदारा महतो[6], बुली महतो[7][8] ने किया। कोल जाति के लोगों ने गैर आदिवासी जमींदारों, महाजनों और सूदखोरों की संपत्ति को नष्ट कर दिया। सरकारी खजाने को लूट लिया और कचहरियों और थानों पर आक्रमण किया। अंत में कंपनी ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सेना की एक विशाल टुकड़ी भेजी और बड़ी निर्दयता से इस विद्रोह को दबा दिया। बड़ी संख्या में कोल मारे गए। कोल अपने पारंपरिक हथियारों से अंग्रेजों की सेना का सामना करने में असमर्थ रहे।

पूर्वी भारत में शोषण के विरुद्ध कोलों ने पहली बार संगठित रूप से सरकार और उसके समर्थकों के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन आरंभ किया। इसी दौरान 1832-34 में भूमिजों का संगठित विद्रोह भी हुआ। शीघ्र ही इस क्षेत्रों में संथालों का व्यापक आंदोलन भी आरंभ हुआ। कोल विद्रोह असफल हुआ, लेकिन असमानता और शोषण के विरूद्ध संघर्ष इस विद्रोह के बाद भी जारी रहा।[9]

भूमिज विद्रोह (सन् 1832 से 1834 तक)

मुख्य लेख: भूमिज विद्रोह

जंगल महल के भूमिजों ने एक बार फिर गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में संगठित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया। जिससे भयभीत होकर अंग्रेज अफसर भाग खड़े हुए। चाईबासा के चैतन सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों ने धोखे से गंगा नारायण को मारा।[7] 1766 से 1833 तक भूमिजों द्वारा चले सम्पूर्ण विद्रोह को चुआड़ विद्रोह या भूमिज विद्रोह कहा जाता है।

भूमिज विद्रोह तत्कालीन बंगाल राज्य (अब झारखण्ड एवं पश्चिम बंगाल) के मिदनापुर जिले के बाराभूम, धलभूम और जंगल महल क्षेत्र में स्थित भूमिज आदिवासियों द्वारा 1766-34 के दौरान में किया गया विद्रोह है। पहला भूमिज विद्रोह 1769 में बड़ाभूम और धलभूम में हुआ तथा 1798-99 में भी भूमिजों का बड़ा विद्रोह हुआ।[1] इसके बाद गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में 1831-33 में भूमिजों का एक संगठित विद्रोह हुआ। यह भारतीय इतिहास का पहला संगठित विद्रोह था।[2] इसे चुआड़ विद्रोह भी कहा जाता है तथा 1832-33 के विद्रोह को अंग्रेजों ने “गंगा नारायण का हंगामा” भी कहा है।[3] 1767 ईस्वी से 1833 ईस्वी तक, 60 से ज्यादा वर्षों में भूमिजों द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह किया गया।

1765 ईस्वी में दिल्ली के बादशाह, शाह आलम ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी को दी थी। इससे आदिवासियों का शोषण होने लगा तो भूमिजों ने विद्रोह कर दिया।

बड़ाभूम राज
बड़ाभूम परगना बंगाल स्थित एक बड़ा राज्य था, जिसका मुख्यालय बराबाजार था। बड़ाभूम राज्य की स्थापना भूमिज आदिवासियों द्वारा 12वीं-13वीं शताब्दी में किया गया था, और भूमिज स्वशासन व्यवस्था से शासन करती थी। जहां मुख्य रूप से भूमिज आदिवासी वास करते थे। जंगल महल के भूमिजों को चुआड़ भी कहा जाता था, जिनमे से कुछ जमींदार, सरदार घटवाल और पाईक बन गए थे।

1765 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दिवानी मिली, तब बड़ाभूम के तत्कालीन राजा विवेक नारायण सिंह ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की और अंग्रेजों के विरुद्ध 1769 के भूमिज विद्रोह, जिसे चुआड़ विद्रोह भी कहा जाता है, में चुआड़ो को सहयोग दिया। राजा विवेक नारायण सिंह की दो रानियां थीं। दो रानियों के दो बेटे थे। 18वीं शताब्दी में राजा विवेक नारायण की मृत्यु के बाद, दो पुत्रों लक्ष्मण नारायण सिंह और रघुनाथ नारायण सिंह के बीच उत्तराधिकारी के लिए संघर्ष हुआ। जिसमें ब्रिटिश शासन ने भी हस्तक्षेप किया।

पारंपरिक भूमिज प्रणाली के रिवाज के अनुसार, बड़ी रानी के पुत्र लक्ष्मण नारायण सिंह राजा के रूप में एकमात्र उत्तराधिकारी थे। लेकिन अंग्रेजों द्वारा छोटी रानी के पुत्र रघुनाथ नारायण को राजा के रूप में नामित करने के बाद एक लंबा पारिवारिक विवाद शुरू हो गया । स्थानीय भूमिज सरदार लक्ष्मण नारायण का समर्थन करते थे। लेकिन वह रघुनाथ द्वारा प्राप्त ब्रिटिश समर्थन और सैन्य सहायता के सामने खड़ा नहीं हो सका। लक्ष्मण सिंह को राज्य से बेदखल कर दिया गया। लक्ष्मण सिंह को उनकी आजीविका के लिए बांधडीह गांव के जागीर दिया गया था, जहां उनका काम सिर्फ बांधडीह घाट की देखभाल करना था। लक्ष्मण सिंह अपने अधिकारों को वापस पाने के लिए संघर्ष करते रहे। लक्ष्मण सिंह ने सुबल सिंह और श्याम गुंजम सिंह के साथ 1770 में विद्रोह किया था, जिसे चुआड़ विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह को 1778 में दबा दिया गया था। 1793 में भू-राजस्व स्थायी बंदोबस्त के बाद बड़ाभूम परगना में लक्ष्मण सिंह ने एक बार बार फिर विद्रोह किया, उन्होंने 500 चुआड़ों के साथ पूरे क्षेत्र में हंगामा किया।[4] बाद अंग्रेजों द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मेदिनीपुर जेल भेज दिया गया, जहां 1796 को उनकी मृत्यु हो गयी।[5] लक्ष्मण सिंह के पुत्र गंगा नारायण सिंह ने बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भीषण विद्रोह किया।[6]

1798 में राजा रघुनाथ नारायण सिंह की मृत्यु के पश्चात, बड़ाभूम जमींदारी में फिर विवाद उत्पन्न हुआ। रघुनाथ नारायण की दो पत्नियां थीं, जिनमें पहली पत्नी (पटरानी) का पुत्र माधव सिंह (उम्र में छोटा) और दूसरी रानी का पुत्र गंगा गोविंद सिंह (उम्र में बड़ा) था। पटरानी का पुत्र होने के कारण सभी भूमिज माधव सिंह का समर्थन कर रहे थे। लेकिन अंग्रेजी अदालत ने गंगा गोविंद सिंह को यह कहकर राजा घोषित किया कि “जमींदारी पर पहला हक बड़े पुत्र का होगा, कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी मां पहली या दूसरी पत्नी थी”। इसके साथ ही माधव सिंह के स्थान पर कृष्णा दास को दीवान बना दिया गया, जिसका माधव सिंह ने चुआड़ों (भूमिजों) को एकजुट कर विरोध किया। बाद में, अंग्रेज़ सरकार द्वारा कृष्णा दास को हटाकर माधव सिंह को दीवान बनाया गया, लेकिन माधव सिंह अपने पद का दुरुपयोग करने लगा और उसका अत्याचार बढ़ने लगा। तब भूमिज आदिवासी किसान, पाइक, सरदार, घाटवालों ने गंगा नारायण सिंह की सहायता मांगी, और 1832 में दीवान माधव सिंह की हत्या के साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ एक आदिवासी संगठित विद्रोह का आरंभ हुआ।

विद्रोह
1832-33 के भूमिज विद्रोह की नीव 60 साल पहले ही रख दी गई थी, 1769 में धालभूम और बड़ाभूम में सर्वप्रथम भूमिज विद्रोह की शुरुआत हुई, जिसे चुआड़ विद्रोह की नाम से भी जाना जाता है। जो अंग्रेज़ों की विरुद्ध भारतीय इतिहास का पहला विद्रोह था।[7] 1771, 1778, 1784, 1787, 1792-93, 1798-99, 1805, 1816 और 1820 में भी भूमिजों का बड़ा विद्रोह हुआ। भूमिज विद्रोह (चुआड़ विद्रोह) पुरे जंगल महल क्षेत्र में 1768-1831 तक छिटपुट रूप से चला, लेकिन 1832 में गंगा नारायण की नेतृत्व में सभी भूमिज राजा, जमीनदार, सरदार, घाटवाल, पाइक, किसान संगठित रूप में विद्रोह किया। बड़ाभूम, धलभूम, कुईलापाल, धादका, पातकुम, शिखरभूम, सिंहभूम, पंचेत, झालदा, वामणी, बाघमुंडी, मानभूम, अंबिका नगर, अमियपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रायपुर और काशीपुर के सभी भूमिज (चुआड़) ने गंगा नारायण सिंह का समर्थन किया। चुआड़ विद्रोह के महानायक, दामपाड़ा के सरदार रघुनाथ सिंह ने भी उनका समर्थन किया। गंगा नारायण सिंह ब्रिटिश शासन और उसके शोषण नीति के खिलाफ लड़ने वाले पहले नेता थे, जिन्होंने सबसे पहले सरदार गोरिल्ला वाहिनी सेना का गठन किया था। जिस पर हर जाति का समर्थन था। जिरपा लाया को सेना का मुख्य सेनापति नियुक्त किया गया था। गंगा नारायण ने 2 अप्रैल, 1832 ई. को वनडीह में बड़ाभूम के दीवान और ब्रिटिश दलाल माधब सिंह पर हमला किया और उनकी हत्या कर दी। उसके बाद गंगानारायण ने सरदार वाहिनी के साथ मिलकर बड़ाबाजार मुफस्सिल का दरबार, नमक निरीक्षक का कार्यालय और थाने को आग के हवाले कर दिया।

बांकुड़ा के कलेक्टर रसेल गंगा नारायण को गिरफ्तार करने पहुंचे, लेकिन सरदार वाहिनी सेना ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। सभी अंग्रेजी सेना मारे गए। लेकिन रसेल किसी तरह जान बचाकर बांकुड़ा भाग गए। गंगा नारायण के इस आंदोलन ने एक तूफान का रूप ले लिया, जिसने छातना, झालदा, अक्रो, अंबिका नगर, श्यामसुंदरपुर, रायपुर, फुलकुसमा, शिल्डा, कुइलापाल और बंगाल के विभिन्न स्थानों में ब्रिटिश रेजिमेंटों को रौंद दिया। उनके आंदोलन का प्रभाव बंगाल में पुरुलिया, बर्धमान, मेदिनीपुर और बांकुड़ा, बिहार में पूरा छोटानागपुर (अब झारखंड), उड़ीसा में मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ जैसे स्थानों पर जोरदार था। नतीजतन, पूरा जंगल महल अंग्रेजों के नियंत्रण से बाहर हो गया था। एक सच्चे ईमानदार, वीर, देशभक्त और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सभी ने गंगा नारायण का समर्थन करना शुरू कर दिया।

अंततः अंग्रेजों को बैरकपुर छावनी से एक सेना भेजनी पड़ी, जिसे लेफ्टिनेंट कर्नल कपूर के नेतृत्व में भेजा गया। संघर्ष में सेना की भी हार हुई। इसके बाद गंगा नारायण और उनके अनुयायियों ने अपनी कार्ययोजना का दायरा बढ़ाया। बर्धमान के कमिश्नर बैटन और छोटानागपुर के कमिश्नर हंट भी भेजे गए लेकिन वे भी सफल नहीं हो सके और उन्हें सरदार वाहिनी सेना के सामने हार का सामना करना पड़ा।

अगस्त 1832 से फरवरी 1833 तक , बिहार के छोटानागपुर (अब झारखण्ड), बंगाल के बांकुड़ा, पुरुलिया, बर्धमान, मेदिनीपुर, उड़ीसा के मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ और पूरा जंगल महल अस्त-व्यस्त रहा। अंग्रेजों ने गंगा नारायण सिंह को दबाने की हर तरह से कोशिश की , लेकिन गंगा नारायण की चतुराई और युद्ध कौशल के सामने अंग्रेज टिक नहीं पाए। बर्धमान और छोटानागपुर के आयुक्त गंगा नारायण सिंह से हारकर रायपुर (उड़ीसा) भाग निकला। इस प्रकार संघर्ष इतना तेज और प्रभावी था कि अंग्रेजों को भूमि बिक्री कानून, उत्तराधिकार कानून, लाख पर उत्पाद शुल्क, नमक कानून, जंगल कानून को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

उस समय खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह अंग्रेजों की मिलीभगत से अपना शासन चला रहे थे। गंगा नारायण पोराहाट और सिंहभूम गए और ठाकुर चेतन सिंह और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए कोल (हो) जनजातियों को संगठित किया। 6 फरवरी 1833 को गंगा नारायण ने खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह के हिंदशहर थाने पर कोल जनजातियों के साथ हमला किया, लेकिन दुर्भाग्यवश 7 फरवरी 1833 को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई।

इस प्रकार 7 फरवरी 1833 ई. को एक पराक्रमी योद्धा, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लिया, भूमिज विद्रोह (चुआड़ विद्रोह भी) के महानायक, गंगा नारायण सिंह ने अपनी अमिट छाप छोड़ी और अमर हो गए। भूमिज विद्रोह के बाद, 1833 के नियमन XIII के तहत, शासन प्रणाली में व्यापक परिवर्तन हुए। राजस्व नीति में परिवर्तन हुआ और छोटानागपुर को दक्षिण-पश्चिम सीमांत एजेंसी के एक भाग के रूप में स्वीकार किया गया।

गुजरात का महीकांत विद्रोह (सन् 1836)

वैसे तो पूरे गुजरात में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की हवा चल रही थी; पर महीकांत में यह विद्रोह भड़ककर तीव्र हो गया। इस विद्रोह का दृढ़ता के साथ दमन कर दिया गया।

गुजरात (गुजराती:ગુજરાત)(/ˌɡʊdʒəˈrɑːt/) पश्चिमी भारत में स्थित एक राज्य है। इसकी उत्तरी-पश्चिमी सीमा जो अन्तर्राष्ट्रीय सीमा भी है, पाकिस्तान से लगी है। राजस्थान और मध्य प्रदेश इसके क्रमशः उत्तर एवं उत्तर-पूर्व में स्थित राज्य हैं। महाराष्ट्र इसके दक्षिण में है। अरब सागर इसकी पश्चिमी-दक्षिणी सीमा बनाता है। इसकी दक्षिणी सीमा पर दादर एवं नगर-हवेली हैं। इस राज्य की राजधानी गांधीनगर है। गांधीनगर, राज्य के प्रमुख व्यवसायिक केन्द्र अहमदाबाद के समीप स्थित है। गुजरात का क्षेत्रफल १,९६,०२४ किलोमीटर है।

भूतकाल में इसे गुर्जरत्रा प्रदेश के नाम से जाना जाता था

गुजरात, भारत का एक राज्य है। कच्छ, सौराष्ट्र, काठियावाड, हालार, पांचाल, गोहिलवाड, झालावाड और गुजरात उसके प्रादेशिक सांस्कृतिक अंग हैं। इनकी लोक संस्कृति और साहित्य का अनुबन्ध राजस्थान, सिंध और पंजाब, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के साथ है। विशाल सागर तट वाले इस राज्य में इतिहास युग के आरम्भ होने से पूर्व ही अनेक विदेशी जातियाँ थल और समुद्र मार्ग से आकर स्थायी रूप से बसी हुई हैं। इसके उपरांत गुजरात में अट्ठाइस आदिवासी जातियां हैं। जन-समाज के ऐसे वैविध्य के कारण इस प्रदेश को भाँति-भाँति की लोक संस्कृतियों का लाभ मिला है।

धर राव विद्रोह (सन् 1841)

इस विद्रोह का सूत्रपात सतारा के महाराज छत्रपति प्रतापसिंह को राज्यच्युत करने के साथ हुआ। इस विद्रोह का संगठन धर राव पँवार ने किया। बदामी दुर्ग पर अधिकार कर लिया गया। अंग्रेजी सेना ने प्रत्याक्रमण करके दुर्ग को वापस ले लिया और विद्रोहियों को कड़े दंड दिए। सातारा (Satara) भारत के महाराष्ट्र राज्य के सतारा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। सातारा कृष्णा नदी और वेन्ना नदी के संगम के समीप स्थित है। इसकी स्थापना 16वीं शताब्दी में हुई थी और यह मराठा साम्राज्य के छत्रपति, शाहु, की राजधानी थी।

कोल्हापुर विद्रोह (सन् 1844)

अंग्रेजों ने दाजी कृष्ण पंडित नाम के एक नए कर्मचारी की राज्य में नियुक्ति करके उसके द्वारा दोनों राजकुमारों को कैद करने का षड़्यंत्र रचा। प्रजा सजग हो गई और अंग्रेज अफसरों को ही कैद किया जाने लगा। कई किले अंग्रेजों से छीन लिए गए। अंग्रेजी खजाने लूट लिये गए। अंग्रेज रक्षक मार डाले गए। कर्नल ओवांस को कैद कर लिया गया। बड़ी मुश्किल से संगठित होकर अंग्रेजों ने विद्रोह का दमन किया।[9]

संथाल विद्रोह (सन् 1855 से 1856 तक)

मुख्य लेख: संथाल विद्रोह

संथाल जाति बंगाल और बिहार में फैली हुई थी। ब्रिटिश शासन व्यवस्था और कर प्रणाली ने संथालों के जीवन को तहस नहस कर दिया। हर वस्तु पर कर लगे थे, यहां तक कि जंगली उत्पादों पर भी। करों की वसूली बाहर के लोग करते थे, जिन्हें दिकू कहा जाता था। उनके द्वारा पुलिस प्रशासन के सहयोग से संथालों का शोषण किया जाता था। महिलाओं का बड़े पैमाने पर यौन शोषण भी किया गया था।

भागलपुर-वर्दवान रेल मार्ग के निर्माण में उन्हें जबरन बेगार करवाया गया। इसी समय पुलिस प्रशासन ने कुछ संथालों को चोरी के इलज़ाम में पकड़ लिया। इस घटना ने गुस्से को और भड़का दिया, और 30 जून 1855 को भागिनीडीह गाँव में 400 ग्रामों के हज़ारों संथाल जमा हुए और विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया। विद्रोह के उद्द्येश्य थे: दिकुओं का निष्कासन। विदेशी शोषक राज्य समाप्त कर धार्मिक राज्य की स्थापना। सिधो, कान्हो इस विद्रोह के नेता थे। क्षेत्र में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया एवं हज़ारों संथालों को मार डाला गया और विद्रोह का दमन कर दिया गया।[10]

विद्रोह के कारण सरकर ने भागलपुर एवं वीरभूमि के संथाल बहुल क्षेत्रों को काटकर संथाल परगना ज़िला बनाया। इस क्षेत्र के लिए भू राजस्व की नई प्रणाली बनाई गयी एवं ग्राम प्रधानों के पूर्व के अधिकारों को बहाल किया गया।

वर्ष 1855 में बंगाल के मुर्शिदाबाद तथा बिहार के भागलपुर जिलों में स्थानीय जमीनदार, महाजन और अंग्रेज कर्मचारियों के अन्याय अत्याचार के शिकार पहाड़िया जनता ने एकबद्ध होकर उनके विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। इसे पहाड़िया विद्रोह या पहाड़िया जगड़ा या संथाल हूल कहते हैं। पहाड़िया भाषा में ‘जगड़ा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है-‘विद्रोह’। यह अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम सशस्त्र जनसंग्राम था। विद्रोह का नेतृत्व चार मुर्मू भाइयों (सिद्धू, कान्हू, चन्द और भैरव) ने किया था। 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस

द्वारा आरम्भ किए गए स्थाई बन्दोबस्त के कारण जनता के ऊपर बढ़े हुए अत्याचार इस विद्रोह का एक प्रमुख कारण था। विद्रोह ३० जून १८५५ को आरम्भ हुआ था। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सैन्य कानून लगा दिया जो ३ जनवरी १८५६ तक चला। अंग्रेज कैप्टन अलेक्ज़ेंडर ने विद्रोह का दमन कर दिया।

परिचय

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया था। उसके वर्णन के अनुसार ये पहाड़ियाँ अभेद्य लगती थीं। यह एक ऐसा खतरनाक इलाका था जहाँ बहुत कम यात्री जाने की हिम्मत करते थे। बुकानन जहाँ कहीं भी गया, वहाँ उसने निवासियों के व्यवहार को शत्रुतापूर्ण पाया। वे लोग कंपनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित थे और उनसे बातचीत करने को तैयार नहीं थे। कई उदाहरणों में तो वे अपने घर-बार और गाँव छोड़कर भाग गए थे। ये पहाड़ी लोग कौन थे? वे बुकानन के दौरे के प्रति इतने आशंकित क्यों थे? बुकानन की पत्रिका में हमें उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में इन लोगों की जो तरस खाने वाली हालत थी उसकी झलक मिलती है। उन स्थानों के बारे में उसने डायरी लिखी थी, जहाँ-जहाँ उसने भ्रमण किया था, लोगों से मुलाकात की थी और उनके रीति-रिवाजों को देखा था।

पहाड़ी वासी

अठारहवीं शताब्दी के परवर्ती दशकों के राजस्व अभिलेखों पर दृष्टिपात करें तो पता लगता है कि इन लोगों को ‘पहाड़िया’ क्यों कहा जाता था। वे राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहा करते थे। वे जंगल की उपज से अपनी गुजर-बसर करते थे और झूम खेती किया करते थे। वे जंगल के छोटे-से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास-फ़ूँस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे आरै राख की पोटाश से उपजाऊ… बनी जमीन पर ये पहाड़िया लोग अपने खाने के लिए तरह-तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगा लेते थे। वे अपने कुदाल से जमीन को थोड़ा खुरच लेते थे कुछ वर्षो तक उस साफ की गई जमीन में खेती करते थे आरै फ़िर उसे कुछ वर्षो के लिए परती छोड़ कर नए इला्के में चले जाते थे जिससे कि उस जमीन में खोई हुई उर्वरता फ़िर से उत्पन्न हो जाती थी।

उन जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फ़ूल इकट्ठा करते थे, बेचने के लिए रेशम के कोया और राल और काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे। पेड़ों के नीचे जो छोटे-छोटे पौधो उग आते थे या परती जमीन पर जो घास-फ़ूस की हरी चादर-सी बिछ जाती थी वह पशुओं के लिए चरागाह बन जाती थी। शिकारियों, झूम खेती करने वालों, खाद्य बटोरने वालों, काठकोयला बनाने वालों, रेशम के कीड़े पालने वालों के रूप में पहाड़िया लोगों की ज़िंदगी इस प्रकार जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई थी। वे इमली के पेड़ों के बीच बनी अपनी झोपड़ियों में रहते थे और आम के पेड़ों की छाँह में आराम करते थे। वे पूरे प्रदेश को अपनी निजी भूमि मानते थे और यह भूमि उनकी पहचान और जीवन का आधार थी। वे बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे, आपसी लड़ाई-झगड़े निपटा देते थे और अन्य जनजातियों तथा मैदानी लोगों के साथ लड़ाई छिड़ने पर अपनी जनजाति का नेतृत्व करते थे।

संथाल

इन पहाड़ियों को अपना मूलाधार बनाकर, पहाड़िया लोग बराबर उन मैदानों पर आक्रमण करते रहते थे जहाँ किसान एक स्थान पर बस कर अपनी खेती-बाड़ी किया करते थे। पहाड़ियों द्वारा ये आक्रमण ज्यादातर अपने आपको विशेष रूप से अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे। साथ ही, ये हमले मैदानों में बसे हुए समुदायों पर अपनी ताकत दिखलाने का भी एक तरीका था। इसके अलावा, ऐसे आक्रमण बाहरी लोगों के साथ अपने राजनीतिक संबंधो बनाने के लिए भी किए जाते थे। मैदानों में रहने वाले जमींदारों को अकसर इन पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से खराद देकर उनसे शांति खरीदनी पड़ती थी। इसी प्रकार, व्यापारी लोग भी इन पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का इस्तेमाल करने की अनुमति प्राप्त करने हेतु उन्हें कुछ पथकर दिया करते थे। जब ऐसा पथकर पहाड़िया मुखियाओं को मिल जाता था तो वे व्यापारियों की रक्षा करते थे और यह भी आश्वासन देते थे कि कोई भी उनके माल को नहीं लूटेगा। इस प्रकार कुछ ले-देकर की गई शांति संधि अधिक लंबे समय तक नहीं चली। यह अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में उस समय भंग हो गई जब स्थिर खेती के क्षेत्र की सीमाएँ आक्रामक रीति से पूर्वी भारत में बढ़ाई जाने लगीं।

अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई-सफ़ाई के काम को प्रोत्साहित किया और जमींदारों तथा जोतदारों ने परती भूमि को धान के खेतों में बदल दिया। अंग्रेजों के लिए स्थायी कॄषि का विस्तार आवश्यक था क्योंकि उससे राजस्व के स्रोंतों में वृद्धि हो सकती थी, निर्यात के लिए फ़सल पैदा हो सकती थी और एक स्थायी, सुव्यवस्थित समाज की स्थापना हो सकती थी। वे जंगलों को उजाड़ मानते थे और वनवासियों को असभ्य, बर्बर, उपद्रवी और क्रूर समझते थे जिन पर शासन करना उनके लिए कठिन था। इसलिए उन्होंने यही महसूस किया कि जंगलों का सफ़ाया करके, वहाँ स्थायी कॄषि स्थापित करनी होगी और जंगली लोगों को पालतू व सभ्य बनाना होगा उनसे शिकार का काम छुड़वाना होगा और खेती का धंधा अपनाने के लिए उन्हें राजी करना होगा। ज्यों-ज्यों स्थायी कॄषि का विस्तार होता गया, जंगलों तथा चरागाहों का क्षेत्र संकुचित होता गया। इससे पहाड़ी लोगों तथा स्थायी खेतीहरों के बीच झगड़ा तेज हो गया। पहाड़ी लोग पहले से अधिक नियमित रूप से बसे हुए गाँवों पर हमले बोलने लगे और ग्रामवासियों से अनाज और पशु छीन-झपट कर ले जाने लगे। औपनिवेशिक अधिकारियों ने उत्तेजित होकर इन पहाड़ियों पर काबू की भरसक कोशिशें कीं परंतु उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं था।

क्रूर नीतियाँ

1770 के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने इन पहाड़ियों को निर्मूल कर देने की क्रूर नीति अपना ली और उनका शिकार और संहार करने लगे। तदोपरांत, 1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने शांति स्थापना की नीति प्रस्तावित की जिसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था और बदले में उन्हें अपने आदमियों का चाल-चलन ठीक रखने की जिम्मेदारी लेनी थी। उनसे यह भी आशा की गई थी कि वे अपनी बस्तियों में व्यवस्था बनाए रखेंगे और अपने लोगों को अनुशासन में रखेंगे। लेकिन बहुत से पहाड़िया मुखियाओं ने भत्ता लेने से मना कर दिया। जिन्होंने इसे स्वीकार किया उनमें से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता खो बैठे। औपनिवेशिक सरकार के वेतनभोगी बन जाने से उन्हें अधीनस्थ कर्मचारी या वैतनिक मुखिया माना जाने लगा।

जब शांति स्थापना के लिए अभियान चल रहे थे तभी पहाड़िया लोग अपने आपको शत्रुतापूर्ण सैन्यबलों से बचाने के लिए और बाहरी लोगों से लड़ाई चालू रखने के लिए पहाड़ों के भीतरी भागों में चले गए। इसलिए जब 1810-11 की सर्दियों में बुकानन ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी तो यह स्वाभाविक ही था कि पहाड़िया लोग बुकानन को संदेह और अविश्वास की दृष्टि से देखते। शांति स्थापना के अभियानों के अनुभव और क्रूरतापूर्ण दमन की यादों के कारण उनके मन में यह धारणा बन गई थी कि उनके इलाको ब्रिटिश लोगो की घुसपैठ का क्या असर होने वाला है उन्हे ऐसे प्रतीत होता था कि प्रत्येक गोरा आदमी एक ऐसी शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो उनसे उनके जंगल और जमीन छीन कर उनकी जीवन शैली और जीवित रहने के साधनों को नष्ट करने पर उतारू हैं। वस्तुत: इन्हीं दिनों उन्हें एक नए खतरे की सूचनाएँ मिलने लगी थीं और वह था संथाल लोगों का आगमन।

संथाल लोग वहाँ के जंगलों का सफ़ाया करते हुए, इमारती लकड़ी को काटते हुए, जमीन जोतते हुए और चावल तथा कपास उगाते हुए उस इलाको में बड़ी संख्या में घुसे चले आ रहे थे। चूँकि संथाल बाशिंदों ने निचली पहाड़ियों पर अपना कब्जा जमा लिया था, इसलिए पहाड़ियों को राजमहल की पहाड़ियों में और भीतर की ओर पीछे हटना पड़ा। पहाड़िया लोग अपनी झूम खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे इसलिए यदि कुदाल को पहाड़िया जीवन का प्रतीक माना जाए तो हल को नए बाशिंदों ;संथालों की शक्ति का प्रतिनिधि मानना होगा। हल और कुदाल के बीच की यह लड़ाई बहुत लंबी चली।

संथाल अगुआ – बुकानन

सन्‌ 1810 के अंत में, बुकानन ने गंजुरिया पहाड़, जो कि राजमहल श्रंखलाओं का एक भाग था, को पार किया और आगे के चट्‌टानी प्रदेश के बीच से निकलकर वह एक गाँव में पहुँच गया। वैसे तो यह एक पुराना गाँव था पर उसके आस-पास की जमीन खेती करने के लिए अभी-अभी साफ की गई थी। वहां के भूदॄश्य का देखकर उसे पता चला कि ‘मानव श्रम के समुचित प्रयोग से’ उस क्षेत्र की तो काया ही पलट गई है। उसने लिखा, गंजुरिया में अभी-अभी काफ़ी जुताई की गई है जिससे यह पता चलता है कि इसे कितने शानदार इला्के बदला जा सकता है मैं सोचता हूँ, इसकी सुंदरता और समृद्ध विश्व के किसी भी क्षेत्र जैसी विकसित की जा सकती है। यहाँ की जमीन अलबत्ता चट्‌टानी है लेकिन बहुत ही ज्यादा बढ़िया है और बुकानन ने उतनी बढ़िया तंबाकू और सरसों और कहीं नहीं देखीं। पूछने पर उसे पता चला कि वहाँ संथालों ने कॄषि क्षेत्र की सीमाएँ काफ़ी बढ़ा ली थी। वे इस इलाके में 1800 के आस-पास आए थे उन्हानें वहाँ रहने वाले पहाड़ी लोगों को नीचे के ढालों पर भगा दिया, जंगलों का सफाया किया आरै फ़िर वहाँ बस गए।

संथाल- राजमहल की पहाड़ियों में

संथाल 1780 के दशक के आस-पास बंगाल में आने लगे थे। जमींदार लोग खेती के लिए नई भूमि तैयार करने और खेती का विस्तार करने के लिए उन्हें भाड़े पर रखते थे और ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें जंगल महालों में बसने का निमंत्रण दिया। जब ब्रिटिश लोग पहाड़ियों को अपने बस में करके स्थायी कॄषि के लिए एक स्थान पर बसाने में असफल रहे तो उनका ध्यान संथालों की ओर गया। पहाड़िया लोग जंगल काटने के लिए हल को हाथ लगाने को तैयार नहीं थे और अब भी उपद्रवी व्यवहार करते थे। जबकि, इसके विपरीत, संथाल आदर्श बाशिंदे प्रतीत हुए, क्योंकि उन्हें जंगलों का सफ़ाया करने में कोई हिचक नहीं थी और वे भूमि को पूरी ताकत लगाकर जोतते थे।

संथालों को जमीनें देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया गया। 1832 तक, जमीन के एक काफ़ी बड़े इलाको को दामिन-इ-कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया। इसे संथालों की भूमि घोषित कर दिया गया। उन्हें इस इलाके के भीतर रहना था, हल चलाकर खेती करनी थी और स्थायी किसान बनना था। संथालों को दी जाने वाली भूमि के अनुदान-पत्र में यह शर्त थी कि उनको दी गई भूमि के कम-से-कम दसवें भाग को साफ़ करके पहले दस वर्षों के भीतर जोतना था। इस पूरे क्षेत्र का सर्वेक्षण करके उसका नक्शा तैयार किया गया। इसके चारों ओर खंबे गाड़कर इसकी परिसीमा निर्धारित कर दी गई और इसे मैदानी इलाके के स्थायी कॄषकों की दुनिया से और पहाड़िया लोगों की पहाड़ियों से अलग कर दिया गया।

दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद, संथालों की बस्तियाँ बड़ी तेजी से बढ़ीं, संथालों के गाँवों की संख्या जो 1838 में 40 थी, तेजी से बढ़कर 1851 तक 1,473 तक पहुँच गई। इसी अवध में, संथालों की जनसंख्या जो केवल 3,000 थी, बढ़कर 82,000 से भी अधिक हो गई। जैसे-जैसे खेती का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे कंपनी की तिजोरियों में राजस्व राशि में वृद्धि होती गई। उन्नीसवीं शताब्दी के संथाल गीतों और मिथकों में उनकी यात्रा के लंबे इतिहास का बार-बार उल्लेख किया गया है: उनमें कहा गया है कि संथाल लोग अपने लिए बसने योग्य स्थान की खोज में बराबर बिना थके चलते ही रहते थे। अब यहाँ दामिन-इ-कोह में आकर मानो उनकी इस यात्रा को पूर्ण विराम लग गया।

जब संथाल राजमहल की पहाड़ियों पर बसे तो पहले पहाड़िया लोगों ने इसका प्रतिरो्ध किया पर अंततोगत्वा वे इन पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने के लिए मजबूर कर दिए गए। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर आने से रोक दिया गया और ई…परी पहाड़ियों के चट्टानी और अधिक बंजर इलाकों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित कर दिया गया। इससे उनके रहन-सहन तथा जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा और आगे चलकर वे गरीब हो गए। झूम खेती नयी-से-नयी जमीनें खोजने और भूमि की प्राकॄतिक उर्वरता का उपयोग करने की क्षमता पर निर्भर रहती है। अब सर्वाधिक उर्वर जमीनें उनके लिए दुर्लभ हो गईं क्योंकि वे अब दामिन का हिस्सा बन चुकी थीं। इसलिए पहाड़िया लोग खेती के अपने तरीके ;झूम खेती को आगे सफलतापूर्वक नहीं चला सके।

जब इस क्षेत्र के जंगल खेती के लिए साफ़ कर दिए गए तो पहाड़िया शिकारियों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके विपरीत संथाल लोगों ने अपनी पहले वाली खानबदोश ज़िंदगी को छोड़ दिया था। अब वे एक जगह बस गए थे और बाजार के लिए कई तरह के वाणिज्यिक फ़सलों की खेती करने लगे थे और व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेन-देन करने लगे थे। किंतु, संथालों ने भी जल्दी ही यह समझ लिया कि उन्होंने जिस भूमि पर खेती करनी शुरू की थी वह उनके हाथों से निकलती जा रही है। संथालों ने जिस जमीन को साफ़ करके खेती शुरू की थी उस पर सरकार ;राज्य भारी कर लगा रही थी, साहूकार ;दिकू लोग बहुत ऊंची दर पर ब्याज लगा रहे थे और कर्ज अदा न किए जाने की सूरत में जमीन पर ही कब्जा कर रहे थे और जमींदार लोग दामिन इलाके पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे। 1850 के दशक तक, संथाल लोग यह महसूस करने लगे थे कि अपने लिए एक आदर्श संसार का निर्माण करने के लिए, जहाँ उनका अपना शासन हो, जमींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक राज के विरुद्ध विद्रोह करने का समय अब आ गया है।

संथाल परगना

1760-1833 तक हुए भूमिज विद्रोह के कारण जंगल महल के हजारों की संख्या में संथाल पलायन कर दामिन-ई-कोह में बस गए थे। 1855-56 के संथाल विद्रोह के बाद यहां संथाल परगना का निर्माण कर दिया गया, जिसके लिए 5,500 वर्गमील का क्षेत्र भागलपुर और बीरभूम जिलों में से लिया गया। औपनिवेशिक राज को आशा थी कि संथालों के लिए नया परगना बनाने और उसमें कुछ विशेष कानून लागू करने से संथाल लोग संतुष्ट हो जाएँगे।

बुकानन का विवरण

वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का एक कर्मचारी था। उसकी यात्राएँ केवल भूदृश्यों के प्यार और अज्ञात की खोज से ही प्रेरित नहीं थीं। वह नक्शा नवीसों, सर्वेक्षकों, पालकी उठाने वालों कुलियों आदि के बड़े दल के साथ सर्वत्र यात्रा करता था। उसकी यात्राओं का खर्च ईस्ट इंडिया कंपनी उठाती थी क्योंकि उसे उन सूचनाओं की आवश्यकता थी जो बुकानन प्रत्याशित रूप से इकट्‌ठी करता था। बुकानन को यह साफ़-साफ़ हिदायत दी जाती थी कि उसे क्या देखना, खोजना और लिखना है। वह जब भी अपने लोगों की फ़ौज के साथ किसी गाँव में आता तो उसे तत्काल सरकार के एक एजेंट के रूप में ही देखा जाता था।

जब कंपनी ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ बना लिया और अपने व्यवसाय का विकास कर लिया तो वह उन प्राकॄतिक साधनों की खोज में जुट गई जिन पर कब्जा करके उनका मनचाहा उपयोग कर सकती थी। उसने परिदृश्यों तथा राजस्व स्रोंतों का सर्वेक्षण किया, खोज यात्राएँ आयोजित कीं और जानकारी इकट्‌ठी करने के लिए अपने भूविज्ञानियों, भूगोलवेत्ताओं, वनस्पति विज्ञानियों और चिकित्सकों को भेजा। निस्संदेह असाधारण प्रेक्षण शक्ति का बुकानन ऐसा ही एक व्यक्ति था। बुकानन जहाँ कहीं भी गया, वहाँ उसने पत्थरों तथा चट्‌टानों और वहाँ की भूमि के भिन्न-भिन्न स्तरों तथा परतों को ध्यानपूर्वक देखा। उसने वाणिज्यिक दृष्टि से मूल्यवान पत्थरों तथा खनिजों को खोजने की कोशिश की उसने लौह खनिज और अबरक, ग्रेनाइट तथा साल्टपीटर से संबंधित सभी स्थानों का पता लगाया। उसने सावधानीपूर्वक नमक बनाने और कच्चा लोहा निकालने की स्थानीय पद्धतियों का निरीक्षण किया।

जब बुकानन किसी भूदृश्य के बारे में लिखता था तो वह अकसर इतना ही नहीं लिखता था कि उसने क्या देखा है और भूदृश्य कैसा था, बल्कि वह यह भी लिखता था कि उसमें फ़ेरबदल करके उसे अधिक उत्पादक कैसे बनाया जा सकता है। वहाँ कौन-सी फ़सलें बोई जा सकती हैं, कौन-से पेड़ काटे जा सकते हैं और कौन-से उगाए जा सकते हैं और हमें यह भी याद रखना होगा कि उसकी सूक्ष्म दृष्टि और प्राथमिकताएँ स्थानीय निवासियों से भिन्न होती थीं: क्या आवश्यक है इस बारे में उसका आकलन कंपनी के वाणिज्यिक सरोकारों से और प्रगति के संबंध में आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा से निर्धारित होता था। वह अनिवार्य रूप से वनवासियों की जीवन-शैली का आलोचक था और यह महसूस करता था कि वनों को कॄषि भूमि में बदलना ही होगा।

सन् 1855 का सैनिक विद्रोह

यह सैनिक विद्रोह निजाम हैदराबाद की फौज की तृतीय घुड़सवार सेना ने किया था। इस विद्रोह को दबाने में ब्रिगेडियर मैकेंजी के शरीर पर दस घाव लगे। मुश्किल से उसकी जान बच पाई। बड़ी फौज भेजकर विद्रोह दबा दिया गया।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (सन् 1857)

मुख्य लेख: भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम

नील विद्रोह (सन् 1850 से 1860 तक)

मुख्य लेख: नील विद्रोह

बंगाल और बिहार में नील की खेती की जाती थी। नील की खेती से अंग्रेज बनिये खूब धन कमाते थे और वे संथाल मजदूरों का भरपूर शोषण करते थे। आखिरकार संथाल मजदूरों और कृषकों ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों की कई कोठियाँ जल गईं और कई अंग्रेज मार डाले गए। विद्रोह दबा दिया गया; लेकिन मजदूरों का शोषण बंद हो गया।[11]

कूका विद्रोह (सन् 1872)

मुख्य लेख: कूका विद्रोह
कूके लोग सिखों के नामधारी संप्रदाय के लोग थे। इन लोगों के सशस्त्र विद्रोह को ‘कूका विद्रोह’ के नाम से पुकारा जाता है। गुरु रामसिंहजी के नेतृत्व में कूका विद्रोह हुआ। कूके लोगों ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बाँटकर अपनी समानांतर सरकार बना डाली। कूके वीरों की संख्या सात लाख से ऊपर थी। अधूरी तैयारी में ही विद्रोह भड़क उठा और इसी कारण वह दबा दिया गया।[12]

वासुदेव बलवंत फड़के के मुक्ति प्रयास (सन् 1875 से 1879)

वासुदेव बलवन्त फड़के का क्षेत्र महाराष्ट्र था। उसने रामोशी, नाइक, धनगर और भील जातियों को संगठित करके उनकी एक सुसज्जित सेना बना डाली। अंग्रेजी सेना के विरुद्ध उसने कई सफल लड़ाइयाँ लड़ीं। ब्रिटिश शासन के लिए वह आतंक बन गया। किसी देशद्रोही ने उसे सोते में गिरफ्तार करा दिया। उसे आजीवन कारावास का दंड देकर अदन की जेल में बंद कर दिया गया। वहीं उसका प्राणांत हुआ। वासुदेव बलवंत फड़के के साथ ही आमने-सामने के और छापामार युद्धों का युग समाप्त हो गया।[13]

चाफेकर संघ (सन् 1897 के आसपास)

महाराष्ट्र के पूना नगर में दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर नाम के तीन सगे भाइयों ने एक संघ की स्थापना की और युवकों को अर्द्ध-सैनिक प्रशिक्षण देकर ब्रिटिश साम्रज्य के विरुद्ध उन्हें तैयार किया। इन लोगों को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का संरक्षण प्राप्त था। 22 जून 1897 को उन्होंने पूना के अत्याचारी प्लेग कमिश्नर मि. रैंड और एक पुलिस अधिकारी मि. आयरिस्ट को गोलियों से भून डाला। इस कांड में दोनों चाफेकर बंधुओं को फाँसी का दंड मिला। सबसे छोटे भाई वासुदेव हरि चाफेकर को भी मुखबिर की हत्या के अपराध में फाँसी का दंड मिला।

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भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन notes

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