अन्हिलवाड़, बादामी/वातापी और कल्याणी का चालुक्य वंश
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अन्हिलवाड़, बादामी/वातापी और कल्याणी का चालुक्य वंश:- चालुक्य वंश (Chalukya Dynasty) – भारतीय इतिहास में चालुक्य वंश की तीन शाखाओं की जानकारी प्राप्त होती है। अन्हिलवाड़ का चालुक्य/सोलंकी वंश, बादामी/वातापी के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य।
चालुक्य वंश भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण राजवंश था जो सत्ता के क्षेत्र में सातवीं से दशमी शताब्दी तक राज्य करता रहा। इस वंश के कुछ प्रसिद्ध शासकों में से एक हैं अन्हिलवाड़, बादामी/वातापी और कल्याणी।
अन्हिलवाड़ चालुक्य शासकों के बीच सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक हैं। वह 950 से 995 ईस्वी तक शासन करता था। उन्होंने पटना (वर्तमान पटना, बिहार) के पास अपनी राजधानी बनाई थी। अन्हिलवाड़ चालुक्यों के समय में कला, संस्कृति, विज्ञान और धर्म का विकास हुआ।
बादामी (वातापी) चालुक्य वंश का दूसरा सबसे प्रसिद्ध शासक था। वह 540 से 568 ईस्वी तक शासन करता था। उन्होंने अपनी राजधानी को बादामी बनाया था। बादामी चालुक्यों के समय में कला, संस्कृति, विज्ञान और धर्म का विकास हुआ।
कल्याणी चालुक्य वंश का एक और प्रसिद्ध शासक था। वह 1068 से 1076 ईस्वी तक शासन करता था।
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अन्हिलवाड़ का चालुक्य/सोलंकी वंश
चालुक्य अथवा सोलंकी वंश अग्नि कुण्ड से उत्पन्न हुए राजपूतों में से एक थे। वाडनगर लेख में इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के कमंडल (चुलुक) से बताई गयी है। इसलिए ये सोलंकी चालुक्य कहलाये। इनकी राजधानी अन्हिलवाड़ (गुजरात) थी इसलिए ये अन्हिलवाड़ के चालुक्य कहलाये। इस वंश के शासक जैन धर्म के संरक्षक व पोषक थे। इन्होंने महिलाओं को भी उच्च पदों पर नियुक्त किया।
मूलराज प्रथम –
इस वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। इसने सरस्वती घाटी में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। ये शाकम्भरी के विग्रहराज से पराजित हुआ और कंथा दुर्ग में शरण ली। कच्छ के शासक लाखा ने 11 बार मूलराज को हराया था। 12वीं बार मूलराज ने उसे हरा दिया और सौराष्ट्र पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद चामुण्डराय, दुर्लभराज शासक बने।
भीमदेव प्रथम (1022-64 ईo)-
यह सोलंकी वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसने कलचुरी नरेश कर्ण के साथ मिलकर परमार भोज की विरुद्ध एक संघ की स्थापना की। इस संघ ने धारा नगर को लूटा, लेकिन लूट के माल को लेकर ये संघ टूट गया। इसके बाद भीम ने परमार जयसिंह द्वितीय को साथ लेकर कर्ण को पराजित किया। इसने आबू पर्वत पर अपना अधिकार सुदृढ़ किया। इसी के सामंत विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाड़ा के जैन मंदिर का निर्माण कराया। इसके निर्माता वास्तुपाल व तेजपाल थे। इस मंदिर के गर्भगृह में ऋषभदेव/आदिनाथ की मूर्ति है जिसकी आँखें हीरे की हैं। इसी के शासनकाल में गजनबी ने 1025 ईo में सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा। भीमदेव भागकर कंथा के दुर्ग में छिप गया। बाद में इसने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। सोमनाथ मंदिर जो पहले लकड़ी व ईंट से निर्मित था , भीम ने उसे पत्थर से निर्मित कराया।
इसके बाद कर्ण शासक बना।
जयसिंह सिद्धराज (1094-1143 ईo)-
यह अपनी माता मयणल्लदेवी के संरक्षण में अल्पायु में शासक बना। यह शैव मत का अनुयायी था और अपनी माँ के कहने पर सोमनाथ की यात्रा कर समाप्त कर दिया। इसने आबू पर्वत पर अपने सात पूर्वजों की गजारोही मूर्तियाँ बनबायीं। इसने सिद्धपुर में रूद्र महाकाल मंदिर का निर्माण कराया। इसने खम्भात में मस्जिद बनाने के लिए एक लाख सिक्कों का दान किया। यह विभिन्न धर्मो व सम्प्रदायों के लोगों से चर्चाएं किया करता था। इसके दरबार में प्रसिद्ध जैन विद्वान् हेमचन्द्र रहते थे। इसने मालवा के परमार शासक यशोवर्मन को हराकर अवन्तिनाथ की उपाधि धारण की। इसने महादेव नामक ब्राह्मण को मालवा का शासक बनाया।
इसका कोई पुत्र नहीं होने के कारण इसने अपने मंत्री उदयन के पुत्र वाहड़ को अपना उत्तराधिकारी बनाया।
कुमारपाल (1143-72 ईo) –
कुमारपाल जैन मत का अनुयायी था परन्तु इसके सभी लेख शिव की स्तुति से प्रारम्भ होते हैं। यह निम्न कुल में जन्मा था इसलिए जयसिंह इससे घृणा करता था। इसका पहला संघर्ष चौहान राजा अर्णोराज से हुआ। इसने विक्रमसिंह परमार और मालवा के बल्लार के आक्रमणों को सफलतापूर्वक विफल कर दिया। अर्णोराज ने अपनी पुत्री जल्हणादेवी का विवाह इससे करके मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया। हेमचन्द्र इसके दरबार में रहता था उसी ने इसे जैन धर्म में दीक्षित किया। इसने राज्य में पशु वध को निषेध कर दिया। नवरात्री पर बकरे की बलि पर रोक लगा दी। कसाइयों को अपना व्यवसाय बंद करने के बदले तीन वर्ष की आय क्षतिपूर्ति स्वरूप दी। इसने हेमचन्द्र के साथ सोमनाथ मंदिर में जाकर उपासना की थी। अंत में इसके भतीजे अजयपाल ने विष देकर इसकी हत्या कर दी।
अजयपाल –
इसने जैन मंदिरों को ध्वस्त किया और साधुओं की हत्याएं करवा दीं। इसके समय शैव और जैन मतानुयायियों के मध्य गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया।
इसके बाद मूलराज द्वितीय शासक हुआ।
भीम द्वितीय –
यह अंतिम सोलंकी शासक था। इसी ने 1178 ईo में गोरी को काशहद मैदान में हराकर भारत में पहली पराजय का मुँह दिखाया था। इसके बाद 1195 ईo में इसने कुतुबुद्दीन ऐबक को भी हराया था। परन्तु 1197 ईo में तुर्कों से इसे पराजित कर अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया।
बादामी/वातापी के चालुक्य
छठी शताब्दी के मध्य से आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर चालुक्यों की इसी शाखा का अधिपत्य रहा। इस शाखा को पूर्व कालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा गया। इस शाखा का उत्कर्ष स्थल बादामी/वातापी रहा इसलिए इन्हे बादामी/वातापी के चालुक्य कहा गया। इनकी जानकारी के लिए पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह लेख एक प्रशस्ति के रूप में संस्कृत भाषा और दक्षिणी ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। इस लेख के रचनाकार रवि कीर्ति हैं। अजंता के भित्ति चित्रों में ईरान के राजदूत का स्वागत करते हुए पुलकेशिन द्वितीय का चित्र महत्वपूर्ण है।
इस वंश का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था। इसने बहुत से अश्वमेघ यज्ञ कराये।
कीर्तिवर्मन प्रथम (566-97 ईo) –
इसे वातापी का प्रथम निर्माता भी कहा जाता है। इसने बनवासी के कदम्ब, कोंकण के मौर्य, और वल्लुरी-कर्नूल क्षेत्र के नलवंशी शासकों को हराया और उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। इसने पृथ्वी वल्लभ, सत्याश्रय की उपाधियाँ धारण की। महाकूट स्तंभ लेख में इसे बहुसुवर्ण अग्निष्टोम यज्ञ करने वाला कहा गया है। इसने वातापी के गुहा मंदिरों का निर्माण कराना प्रारम्भ किया।
मंगलेश –
यह वैष्णव मत का अनुयायी था जिसे परमभागवत कहा गया। इसने वातापी के गुहा मंदिरों का निर्माण पूर्ण कराया।
पुलकेशिन द्वितीय –
यह चालुक्य नरेशों में सर्वाधिक योग्य व शक्तिशाली था। यह अपने चाचा मंगलेश व उसके सहयोगियों की हत्या कर 609-10 ईo में शासक बना। इसके चाचा से हुए इसके गृह युद्ध के कारण साम्राज्य में अराजकता फ़ैल गयी। नर्मदा के तट पर इसका युद्ध हर्षवर्धन से हुआ और उसे इसने पराजित कर दिया। बहुत से युद्धों को जीतने के बाद इसने परमेश्वर की उपाधि धारण की। इसी के समय पल्लव-चालुक्य शासकों के संघर्ष की शुरुवात हुयी। पुलकेशिन द्वितीय ने कांची पर आक्रमण कर पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन के राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे उत्साहित होकर इसने पुनः कांची पर आक्रमण किया। इस बार नरसिंह वर्मन प्रथम ने लंका नरेश मानववर्मन की सहायता से इसे बुरी तरह परास्त कर दिया।
विक्रमादित्य द्वितीय –
इसने पल्लव नरेश नन्दिवर्मा द्वितीय को परास्त कर काँचीकोंड की उपाधि धारण की।
नोट – पूर्वी चालुक्य (वेंगी के चालुक्य) वंश की स्थापना पुलकेशिन द्वितीय के भाई विष्णु वर्धन ने की थी।
कल्याणी के चालुक्य
कल्याणी के चालुक्य वंश का उदय राष्ट्रकूटों के पतन के बाद हुआ। इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता तैलप द्वितीय था। इनका पारिवारिक चिन्ह वराह था।
तैलप द्वितीय –
तैलप द्वितीय का परमार शासक मुंज से लम्बे समय तक संघर्ष चला। मेरुतुंग की प्रबंध चिंतामणि से ज्ञात होता है कि इसने मुंज पर छः बार आक्रमण किया परन्तु हारता रहा।
सोमेश्वर प्रथम –
सोमेश्वर प्रथम 1043 ईo में अगला शासक बना। इसने ही चालुक्यों की राजधानी मान्यखेत से कल्याणी स्थानांतरित की। इसने भोज परमार की राजधानी धारा पर आक्रमण कर उसे आत्मसमर्पण करने को मजबूर किया। कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि चालुक्यों ने धारा नगरी को जला दिया और मांडव पर अधिकार कर लिया। कोप्पल तथा कुडलसंगमम के युद्ध में इसे चोलों से हार का सामना करना पड़ा। राजराज चोल ने इसे बुरी तरह परास्त कर विजयेंद्र की उपाधि धारण की। चोलों से मिली लगातार हार के बाद इसने तुंगभद्रा नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली।
विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ईo) –
इसने राज्यारोहण के समय चालुक्य विक्रम संवत की शुरुवात की। इसका काल शांति का काल रहा। इसके समय चोल-चालुक्य संघर्ष काफी समय तक रुक गया। इसने विक्रमपुर नामक एक नया नगर बसाया। इसकी राजसभा में विक्रमांकदेवचरित के लेखक विल्हण और मिताक्षरा की लेखक विज्ञानेश्वर मिश्र रहते थे। विल्हण इसके राजकवि थे। यह कल्याणी के चालुक्य वंश का महान शासक था। इसकी मृत्यु के पश्चात चालुक्य वंश पतनोन्मुख हो गया।
सोमेश्वर तृतीय –
यह स्वयं एक विद्वान व्यक्ति था। इसने युद्ध से अधिक शांति की ओर ध्यान दिया। इसने भूलोकमल्ल और त्रिभुवनमल्ल जैसी उपाधियाँ धारण की। इसने मानसोल्लास नामक शिल्पशास्त्र की रचना की।
सोमेश्वर चतुर्थ –
सोमेश्वर चतुर्थ कल्याणी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक था। यह तैलप तृतीय का पुत्र था।
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