International Relations handwritten notes in Hindi pdf for Bihar PCS

International Relations handwritten notes in Hindi pdf for Bihar PCS

International Relations handwritten notes in Hindi pdf for Bihar PCS

Hello aspirants,

Definition: International relations refer to the study of interactions and relationships between countries, including their governments, organizations, and non-state actors, such as multinational corporations and non-governmental organizations (NGOs).

Actors: The primary actors in international relations are sovereign states, which engage in diplomatic, economic, and military interactions. Other important actors include intergovernmental organizations (IGOs) like the United Nations, regional organizations, and non-state actors mentioned earlier.

Key Concepts and Theories:

Sovereignty: The principle that states have exclusive authority and control over their territories and domestic affairs.
Power: The ability of a state or actor to influence others and achieve desired outcomes.
Realism: A dominant theory that emphasizes power, national interests, and the competitive nature of international politics.
Liberalism: A theory that focuses on cooperation, interdependence, and the potential for collective security and economic prosperity.
Constructivism: A theory that emphasizes the role of ideas, norms, and identities in shaping international relations.
Globalization: The increasing interconnectedness and interdependence of countries in terms of trade, finance, communication, and culture.
Diplomacy: The practice of negotiation and dialogue between states to manage conflicts and advance mutual interests.
International Organizations:

United Nations (UN): An intergovernmental organization aimed at promoting peace, security, development, and human rights worldwide.
World Trade Organization (WTO): An organization that deals with global trade rules and resolves trade disputes between member countries.
European Union (EU): A political and economic union of European countries aimed at fostering integration, cooperation, and shared governance.
North Atlantic Treaty Organization (NATO): A military alliance among North American and European countries for collective defense.
Global Issues:

Security: Issues such as terrorism, nuclear proliferation, conflicts, and peacekeeping efforts.
Human Rights: The protection and promotion of fundamental rights and freedoms globally.
Climate Change: The global challenge of addressing environmental degradation and reducing greenhouse gas emissions.
Economic Interdependence: The increasing integration of national economies through trade, investment, and financial flows.
Global Health: Addressing health challenges at the global level, such as pandemics and access to healthcare.
These notes provide a general overview of international relations, but the field is vast and complex, with numerous theories, concepts, and ongoing global issues.

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Most Important International Relations Question Answer

प्रश्न 1.अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को परिभाषित कीजिए तथा इसकी प्रकृति (स्वरूप) का उल्लेख कीजिए।

अथवा”

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति समस्त राजनीति के समान शक्ति के लिए संघर्ष है।” विवेचना कीजिए।

अथवा”

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से आप क्या समझते हैं ? इसके क्षेत्र अथवा विषय-वस्तु पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति : अर्थ तथा परिभाषाएँ

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अर्थ को ‘राजनीति’ शब्द के अर्थ के आधार पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। सामान्यतया राजनीति का आशय ‘शक्ति प्राप्त करने के लिए किया गया संघर्ष’ है । जब

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति- अर्थ , परिभाषा , महत्व, स्वरूप , विषय-वस्तु,क्षेत्र

कुछ समान हित अथवा स्वार्थ रखने वाले व्यक्ति एक गुट में संगठित होकर अपने विरोधी गुट या गुटों से टकराते हैं, तभी राजनीति का जन्म होता है। इस प्रकार सामान्य अर्थ में विश्व के राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों की राजनीति को ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कहते हैं।

सामान्य रूप से हम राष्ट्रों के मध्य पाई जाने वाली राजनीति को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की संज्ञा प्रदान करते हैं। दूसरे शब्दों में, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्र अपने हित साधन के लिए आपसी सम्बन्धों में संघर्ष की जिस स्थिति में रहते हैं, उसी का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु है। इसे इस प्रकार भी स्पष्ट किया जा सकता है-शक्ति के लिए संघर्ष ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति है। शक्ति का अर्थ है-शक्ति अथवा योग्यता द्वारा दूसरे पक्ष से अपने निश्चित कार्य करा लेना ।

अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति, रक्षण, प्रयोग तथा विस्तार की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक विकासोन्मुख विषय है, अत: इसकी परिभाषा को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद हैं। कतिपय प्रमुख लेख्नकों द्वारा व्यक्त परिभाषाएँ यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं-

मॉर्गेन्थाऊ ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ बताते हुए कहा है, “राष्ट्रों के बीच संघर्ष और शक्ति के प्रयोग का नाम ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति है ।” –

थॉम्पसन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को परिभाषित करते हुए लिखा है, “राष्ट्रों के मध्य छिड़ी स्पर्द्धा के साथ-साथ उनके परस्पर सम्बन्धों को सुधारने या बिगाड़ने वाली परिस्थितियों एवं संस्थाओं का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कहलाता है ।”,

स्प्राउट के अनुसार, “स्वतन्त्र राजनीतिक समुदायों अर्थात् राज्यों के अपने-अपने उद्देश्यों अथवा हितों के आपसी विरोध-प्रतिरोध या संघर्ष से उत्पन्न उनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं और सम्बन्धों का अध्ययन ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति है।”

पैडलफोर्ड व लिंकन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को शक्ति सम्बन्धों के परिवर्तित होते हुए ढाँचों के भीतर एक-दूसरे से टकराती हुई राजकीय नीतियों के रूप में देखते हैं।

चार्ल्स श्लाइचर के अनुसार, “राज्यों के सभी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शामिल किए जा सकते हैं।”
यद्यपि वे यह मानते हैं कि सभी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध राजनीतिक नहीं होते।

फेलिक्स ग्रास के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति वस्तुतः राष्ट्रों की विदेश नीति का ही अध्ययन है।”

जेम्स रोजनाऊ के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपबन्ध है।”

क्विन्सी राइट के शब्दों में,“अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक ऐसी कला है जिसके द्वारा कोई वर्ग, गुट अन्य बड़े गुटों को प्रभावित, छलयोजित अथवा नियन्त्रित करके कोई वर्ग,दूसरे के वर्ग विरोध के बावजूद अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।”

संक्षेप में कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सम्बन्ध इस बात से है जिसमें विभिन्न राष्ट्र अपनी नीतियों और कार्यों के द्वारा अपने उन राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति हेतु प्रयासरत रहते हैं जो दूसरे राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों से टकराते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति (स्वरूप) :-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विभिन्न परिभाषाओं को ध्यान में रखते हुए प्रो. के. सी. गुप्ता ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति (स्वरूप) को निम्न मान्यताओं के आधार पर निश्चित किया है :-
(1) विश्व में अनेक स्वतन्त्र राज्य हैं।
(2) इन राज्यों का आधार राष्ट्रवाद और कानूनी प्रभुसत्ता है ।
(3) इन सभी के अपने-अपने राष्ट्रीय हित हैं, जिनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्वतन्त्रता तथा प्रादेशिक अखण्डता है।
(4) जो राष्ट्रीय हित परस्पर विरोधी होते हैं, वही अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष को जन्म देते हैं।
(5) विभिन्न राष्ट्र अपने-अपने हितों की वृद्धि के लिए शक्ति का प्रयोग करते हैं।
(6) शक्ति का प्रयोग मुख्यतया राजतन्त्र और युद्ध के रूप में देखने को मिलता है।

इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न राष्ट्रों के बीच शक्ति के लिए संपर्क होता है। युद्ध या शान्ति संघर्ष के उप-परिणाम हैं,न कि वे स्वयं में साध्य । राष्ट्र शक्ति कई तत्त्वों से मिलकर बनती है; जैसे-सांस्कृतिक, भौतिक, आर्थिक, जनसांख्यिक, सैनिक आदि। सैनिक आवश्यकता के कारण विभिन्न सैनिक गठबन्धन किए जाते

यह उल्लेखनीय है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्धों में कभी स्थिरता नहीं आ पाती है,क्योंकि कोई राष्ट्र यह नहीं चाहता कि दूसरा राष्ट्र उससे अधिक शक्तिशाली हो जाए। इसीलिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों व उनके कानूनों का भी उल्लंघन किया जाता है।

क्विन्सी राइट ने लिखा है, “जब तक कि राज्यों को कानून के प्रभावी होने में विश्वास नहीं है और प्रत्येक राज्य अपनी सुरक्षा के लिए शक्ति बढ़ाने में प्रयत्नशील है, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति दण्डनीति पर ही चलती रहेगी।”
उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक और भी स्वरूप हैशान्तिपूर्ण जीवन, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व सह-अस्तित्व। आजकल विश्व युद्धों के भयंकर परिणामों के कारण सभी राष्ट्रों ने शान्ति की बात करना प्रारम्भ कर दिया है, चाहे वे अमेरिका और रूस जैसे बड़े शक्तिशाली राष्ट्र ही क्यों न हों। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न राष्ट्र विश्व-शान्ति और सह-अस्तित्व के मार्ग का अनुसरण करें।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र अथवा विषय-वस्तु:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक नया विषय है, अतः अभी उसका क्षेत्र निश्चित नहीं हो पाया है। सन् 1947 में विदेशी मामलों की परिषद् ने एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था, जिसमें एक सर्वेक्षण के आधार पर ग्रेसन किर्क ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु में पाँच तत्त्वों का अध्ययन शामिल किया था-
(1) राज्य व्यवस्था के स्वरूप व कार्य-प्रणाली का अध्ययन,
(2) राज्य की शक्ति को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन,
(3) अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति एवं महाशक्तियों की विदेश नीतियों का अध्ययन,
(4) वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास का अध्ययन, तथा
(5) अधिक स्वामित्व वाली विश्व व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन।

चार्ल्स श्लाइचर सभी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शामिल ‘करते हैं।

पामर तथा पार्किन्स का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का राज्य व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

मॉर्गेन्थाऊने राष्ट्रों के राजनीतिक सम्बन्धों और विश्व-शान्ति की समस्याओं को केन्द्र-बिन्दु मानकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण किया है।

संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र अथवा विषय-वस्तु को अग्र शीर्षकों के अन्तर्गत व्यक्त किया जा सकता है

(1) राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख पात्र राज्य होते हैं और इसके अन्तर्गत राज्यों के बाह्य व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। राज्यों के आपसी सम्बन्ध बड़े जटिल और कई प्रकार के तत्त्वों; जैसे-भू-राजनीतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, वैचारिक, सामरिक तत्त्वों आदि से प्रभावित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन पर बल देती है।

(2) राज्य व्यवस्था का अध्ययन:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति राज्यों के मध्य की। राजनीति है । इसलिए इसमें सबसे पहले राज्य व्यवस्था का अध्ययन होता है। राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की इकाइयाँ होते हैं । पामर तथा पार्किन्स के अनुसार, “विश्व समाज का आधार राज्य या राज्य व्यवस्था ही है। इसलिए विश्व समाज और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन का आरम्भ यहीं से होना चाहिए।” सम्प्रभुता, राष्ट्रीयता और शक्ति इस राज्य व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ हैं । जब इन राज्यों में राष्ट्रीय हितों के लिए संघर्ष होता है और वे शक्ति का सहारा लेते हैं, तब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का जन्म होता है।

(3) शक्ति सम्बन्धों का अध्ययन:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रख्यात विद्वान् मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति है। अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में सभी राज्य शक्ति के उपार्जन के लिए प्रयत्नशील होते हैं और शक्ति का दृष्टिकोण ही उनकी विदेश नीति की रचना में सबसे अधिक निर्णायक भूमिका अदा करता है।

(4) विदेश नीतियों का अध्ययन:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में विभिन्न देशों के मध्य राजनीतिक, आर्थिक, व्यापारिक तथा सैनिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। इससे राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों के नियमन को समझा जा सकता है। कुछ विचारक तो यह भी मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन विदेश नीति के अध्ययन का ही पर्याय है।

(5) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का अध्ययन:-

राज्यों के मध्य आर्थिक, सैनिक, तकनीकी और सांस्कृतिक सहयोग की वृद्धि करने हेतु ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के महत्त्व को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ ही एकमात्र संगठन नहीं है, अपितु अब अनेक प्रकार के प्रादेशिक संगठनों की स्थापना हो चुकी है। ये सभी संगठन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय कानून का अध्ययन:-

अन्तर्राष्ट्रीय कानून का अध्ययन भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का ही एक भाग है । प्रायः सभी राष्ट्रों में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे उन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का पालन करते हैं जो उनके हितों की रक्षा करते हैं। वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय कानून का क्षेत्र विस्तृत होता जा रहा है। वह राष्ट्रों के व्यवहार को मर्यादित करता है और विश्व व्यवस्था बनाए रखने में सहयोग प्रदान करता है।

(7) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यन्त्र:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र के अन्तर्गत वे सभी साधन और यन्त्र भी आते हैं जिनसे यह संचालित होती है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कूटनीति, विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, विदेशी और सैनिक सहायता, शक्ति तथा शस्त्र और युद्ध के माध्यम से संचालित होती है। इन्हीं का सहारा लेकर एक राज्य राष्ट्रीय हितों के लिए हो रहे संघर्ष में अपने पक्ष को सबल करने का प्रयत्न करता है। इन्हीं के चारों ओर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति चक्कर लगाती है।

(8) राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद :-

आधुनिक युग में विभिन्न राज्यों के पारस्परिक व्यवहार के मध्य जिन शक्तिशाली प्रवृत्तियों का उदय हुआ है उनमें राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद प्रमुख हैं। इनका अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अन्तर्गत किया जाता है। राष्ट्रवाद की भावना ने एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका का नक्शा ही बदल डाला है। इसी ने साम्राज्यवाद को नष्ट किया है, परन्तु साथ ही हम साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के नये-नये रूप देख रहे हैं। यह नव-उपनिवेशवाद आज आर्थिक नियन्त्रण,सैनिक निर्भरता तथा प्रभाव क्षेत्र के रूप में प्रकट हो रहा है।

(9) राष्ट्रीय चरित्र:-

किसी राष्ट्र की विदेश नीति उसके राष्ट्रीय हितों पर आधारित होती है और उसके निर्माण में राष्ट्र के नागरिकों के चरित्र का भी एक विशेष योगदान होता है। सभी राष्ट्रों का आचरण एक समान नहीं होता है। वस्तुतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के रंगमंच पर राष्ट्रों की भूमिका एक बड़ी सीमा तक उनके अपने चरित्र द्वारा निश्चित होती है।

(10) विचारधाराएँ:-

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के संचालन में कुछ विचारधाराओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। ‘यथास्थिति’ की विचारधारा, ‘शक्ति-वितरण में परिवर्तन की विचारधारा तथा ‘शक्ति-प्रदर्शन’ की विचारधारा कुछ प्रमुख विचारधाराएँ हैं।

(11) प्रादेशिकतावाद अथवा क्षेत्रीयतावाद :-

विगत वर्षों में राज्य व्यवस्था में जो नये परिवर्तन हुए हैं, उनमें प्रादेशिकतावाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके प्रभाव के – फलस्वरूप एक प्रदेश अथवा क्षेत्र में स्थित बहुत-से राज्य मिलकर एक प्रादेशिक संगठन का निर्माण करते हैं।

(12) युद्ध एवं शान्ति की गतिविधियों का अध्ययन :-

युद्ध की परम्परा में शीत युद्ध ने निःसन्देह एक नया अध्याय जोड़ा है। शीत युद्ध एक प्रकार का स्नायु युद्ध है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आज इस बात पर विचार किया जाता है कि युद्धों को कैसे रोका जाए अथवा समाप्त किया जाए । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में निःशस्त्रीकरण, शस्त्र नियन्त्रण,शीत युद्ध तथा तनाव-शैथिल्य का भी अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2. “मॉर्गन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद के छ: सिद्धान्त न केवल एक-दूसरे के प्रतिरोधक हैं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के यथार्थ का भी प्रतिरोध करते हैं।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।

अथवा ”

मॉर्गेन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद के सिद्धान्तों की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

अथवा

”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी सिद्धान्त का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर – मॉर्गेन्थाऊ शिकागो विश्वविद्यालय (अमेरिका) के राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हैं। वे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवादी विचारधारा के प्रतिनिधि प्रवक्ता हैं तथा वर्षों तक वे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रधान सिद्धान्तकारों में अग्रणी रहे हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्त के रूप में मान्यता पाने के क्षेत्र में राजनीतिक आदर्शवाद और राजनीतिक यथार्थवाद दो प्रमुख प्रतियोगी दृष्टिकोण हैं।

मॉर्गन्थाऊ-

आदर्शवादी दृष्टिकोण मानव प्रकृति को मूलतः अच्छा मानकर चलता है। इसके विपरीत यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार मानव स्वभाव में निहित अन्तर्विरोधों के कारण शुद्ध नैतिक मान्यताओं पर विश्व समाज का संचालन पूर्णतया असम्भव है। यथार्थवादी दृष्टिकोण में यह विचार निहित है कि विश्व के राष्ट्रों के बीच किसी-नकिसी रूप में वैमनस्य, संघर्ष आदि मौजूद रहता है। अतः कूटनीति का प्रमुख कार्य यही है कि शक्ति प्रतिस्पर्धा पर किसी-न-किसी रूप में अंकुश लगाया जाए। संक्षेप में, यथार्थवाद विरोध एवं संघर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शाश्वत तत्त्व के रूप में देखता है। एक ऐसे तत्त्व के रूप में जिसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून एवं संस्था द्वारा नियन्त्रित . नहीं किया जा सकता है । इसलिए कूटनीति
की चुनौती यही है कि ऐसे साधनों को विकसित किया जाए, ताकि शक्ति संघर्ष में सफलता प्राप्त की जा सके। __मॉर्गेन्थाऊ की मान्यता है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मूल आधार शक्ति के रूप में परिभाषित हित की अवधारणा है। शक्ति के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रहित की महत्ता पर बल देने के कारण मॉर्गेन्थाऊ का दृष्टिकोण यथार्थवादी दृष्टिकोण बन जाता है। मॉर्गन्थाऊ के अनुसार उनका सिद्धान्त यथार्थवादी इसलिए है कि वह मानव स्वभाव को उसके यथार्थ रूप में देखते हैं। अनुभव व तर्क इस सिद्धान्त के प्रमुख गुण रहे हैं। यह सिद्धान्त यथार्थ तथ्यों तथा वास्तविकताओं पर आधारित है। पूर्व मान्यताओं तथा अमूर्त तथ्यों का यथार्थवादी सिद्धान्त में कोई महत्त्व नहीं है। इसकी महत्ता स्टेनले हाफमैन के इन शब्दों में प्रकट होती है, “मॉर्गेन्थाऊ का यथार्थवादी सिद्धान्त विश्व सम्बन्धों को समझने के लिए हमें एक विश्वसनीय नक्शा प्रदान करने का प्रयास हैं।”

मॉर्गेन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद के सिद्धान्त :-

मॉर्गेन्थाऊ ने अपने यथार्थवादी विचारों को छ: सिद्धान्त रूपों में प्रस्तुत किया है-

(1) मानवीय प्रकृति पर आधारित राजनीति के वस्तुगत नियम :-

मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार राजनीति का नियमन-संचालन वस्तुगत नियमों से होता है और इन नियमों का आधार मानव की प्रकृति है। वस्तुगत नियमों व राजनीति में गहरा सम्बन्ध है। बिना इन नियमों के अध्ययन के राजनीतिक पद्धति में सुधार सम्भव नहीं है। इन वस्तुगत नियमों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता,क्योंकि ये स्थानीय व सार्वभौम है। मानव प्रकृति स्थायी होने के कारण इस पर आधारित नियम भी स्थायी होते हैं।

(2) परिस्थितियों का राष्ट्रीय हितों पर प्रभाव :-

परिस्थितियाँ राष्ट्रीय हितों पर अपना काफी प्रभाव डालती हैं। परिस्थिति के आधार पर राजनीतिक निर्णय लिए जाते हैं। किसी भी देश के हित परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। इसी कारण राजनीतिज्ञ यह मानते हैं कि बदलती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर शक्ति के सन्दर्भ में विदेश नीति निर्धारित की जानी चाहिए । यथार्थवादी सिद्धान्त के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मूल में ही राष्ट्रीय हित निहित हैं। इन्हीं हितों को प्राप्त करने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है।

(3) शक्ति के सन्दर्भ में राष्ट्रीय हितों की व्याख्या:-

मॉर्गेन्थाऊ शक्ति के सन्दर्भ में राष्ट्र के हितों की व्याख्या करता है। प्रत्येक राष्ट्रीय व्यवहार ही उसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों का आधार होते हैं तथा वह अपने व्यवहारों का प्रसार अपनी शक्ति के बल पर करता है। प्रत्येक देश की विदेश नीति का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करना होता है। इसके लिए वह उचित व अनुचित को ध्यान में नहीं रख पाता।

(4) नैतिक आदशों में यथार्थवाद :-

राजनीतिक नियमों में नैतिक आदर्श अमूर्त तथा सार्वभौमिक नियमों पर आधारित न होकर किसी व्यवहार की नैतिकता व अनैतिकता, औचित्य व अनौचित्य के निर्णय पर आधारित होते हैं, क्योंकि देश या राज्यों की प्रभावकारी नैतिकता, परिस्थितियों व समय के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। यथार्थवादी सिद्धान्त में अमूर्त व नैतिक नियमों के स्थान पर बुद्धि की सर्वोच्चता को स्वीकारा गया है।

(5) राज्यों की आकांक्षाएँ तथा विश्व के नैतिक नियम :-

मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार राज्य की आकांक्षाओं तथा विश्व के नैतिक नियमों के मध्य किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता है । इनमें भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। प्रत्येक राष्ट्र शक्ति का प्रयोग करके या किसी भी अन्य विधि से अपनी आकांक्षाओं तथा राष्ट्रीय हितों को सिद्ध करना चाहता है, क्योंकि राष्ट्रीय हित ही सर्वोपरि है। विश्व के नैतिक नियमों का पालन करने के लिए कोई राष्ट्र बाध्य नहीं है । इसीलिए मॉर्गेन्थाऊ का कहना है कि राज्यों के कार्य की समीक्षा राष्ट्रीय हितों व आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए. नैतिक नियमों के आधार पर मूल्यांकन सही नहीं होगा।

(6) राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता :-

राजनीतिक यथार्थवाद राजनीतिक परिवेश की स्वायत्तता में विश्वास करता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को राष्ट्रीय हित,संघर्ष और शक्ति के आधार पर राजनीतिक क्षेत्र से अलग किया जा सकता है। कभी-कभी इसमें गैर-राजनीतिक विचारों को सम्मिलित किया जाता है, परन्तु प्रमुखता प्राप्त नहीं होती, इसमें केवल राजनीतिक मापदण्डों को ही प्रमुखता दी जाती है। मॉर्गेन्थाऊ तथा अन्य यथार्थवादी विद्वानों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कानून और नैतिकता को सम्मिलित नहीं करना चाहिए।
मॉर्गेन्थाऊ के यथार्थवादी सिद्धान्तों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है

(1) यथार्थवादी सिद्धान्त मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित होता है तथा ऐसे कानून खोजता है जिनके द्वारा संसार की समस्त राजनीति का संचालन किया जाता है।

(2) इस सिद्धान्त के अनुसार राजनीतिक गतिविधियों का महत्त्व राष्ट्रीय हितों की पृष्ठभूमि में पाया जाता है।
(3) इस सिद्धान्त के अनुसार राष्ट्रीय हित पूरे करने के लिए संघर्ष आवश्यक होता है, परन्तु यह संघर्ष नियन्त्रण रूपान्तरण तथा समझौते द्वारा भी किया जा सकता है।

मॉर्गेन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद सिद्धान्त की आलोचना :-

प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक वासरमैन ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है कि “जब तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मॉर्गन्थाऊ के यथार्थवादी सिद्धान्त का प्रभाव बना रहेगा तब तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन वैज्ञानिक विकास की ओर उन्मुख नहीं हो सकेगा।”
मॉर्गेन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जा सकती है-

(1) सिद्धान्त की अपूर्णता :-

कुछ आलोचकों के अनुसार यह सिद्धान्त अपूर्ण है। स्प्राउट के अनुसार यह सिद्धान्त राष्ट्रीय नीति के उद्देश्यों के प्रेरकों का विवेचक न होने के कारण अपूर्ण है। क्विन्सी राइट ने यह भी कहा है कि मॉर्गेन्थाऊ के सिद्धान्त में
विभिन्न मूल्यों के राष्ट्रीय नीति पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख नहीं होने के कारण यह अपूर्ण है।

(2) गहनता एवं गूढ़ता का प्रभाव :-

आलोचकों के अनुसार इस सिद्धान्त में गहनता और गूढ़ता जैसे आवश्यक गुणों का पूर्ण अभाव है। उनके अनुसार मॉर्गेन्थाऊ का सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है।

(3) सिद्धान्त द्वारा केवल राष्ट्रीय हित, शक्ति तथा संघर्ष पर बल देना :-

अनेक विद्वानों ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है कि इस सिद्धान्त के द्वारा केवल राष्ट्रीय शक्ति एवं संघर्ष को प्रमुखता प्रदान की गई है।

(4) राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता का प्रश्न अस्पष्ट :-

मॉर्गेन्थाऊ अपने सिद्धान्त में स्वायत्तता के प्रश्न को उठाकर भी स्पष्ट नहीं कर पाए हैं।

(5) राष्ट्रीय हितों का वस्तुगत न होना :-

कुछ विद्वानों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय हित वस्तुगत नहीं होते । वर्तमान समय में प्रत्येक राष्ट्र का जीवन संघर्षमय है तथा उसका अस्तित्व भी हर पल संकट में होता है । अतः राष्ट्र अपने अस्तित्व की सुरक्षा पर बहुत ध्यान देता है । इस प्रकार अस्तित्व की सुरक्षा को वस्तुगत तथ्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि अस्तित्व की सुरक्षा का प्रश्न राष्ट्र का आत्मगत विषय है,जिसके लिए प्रत्येक राष्ट्र प्रयास करता है।

(6) सिद्धान्त में अस्पष्टता एवं विरोधाभास :-

मॉर्गेन्थाऊ के विचारों में अस्पष्टता एवं विरोधाभास पाया जाता है। उसने अपनी एक पुस्तक में कहा है कि “जिस प्रकार अर्थशास्त्र का सम्बन्ध धन से है, उसी प्रकार राष्ट्रीय हित का सम्बन्ध शक्ति से है।” परन्तु उसने अपनी दूसरी पुस्तक में कहा है कि “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का समान लक्ष्य होगा, तो अन्य क्षेत्रों में भी प्रवेश कर सकेगा।”

(7) सिद्धान्त का वर्तमान स्थिति से मेल न खाना :-

मॉर्गेन्थाऊ के मतानुसार सम्पूर्ण संसार स्वार्थी होता है तथा सभी राष्ट्रों का लक्ष्य शक्ति है। मॉर्गेन्थाऊ के इस मत की आलोचना करते हुए कुछ विद्वान कहते हैं कि आज जबकि विश्व की राजनीतिक स्थितियाँ तेजी से परिवर्तित हो रही हैं,शक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एकमात्र उद्देश्य नहीं माना जा सकता। आधुनिक युग में सहयोग है, अतः मॉर्गेन्थाऊ का राजनीतिक यथार्थवाद सिद्धान्त वर्तमान में असंगत है।
उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी मॉर्गेन्थाऊ के सिद्धान्त का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसको पूर्ण रूप से निरर्थक नहीं कहा जा सकता है। थॉम्पसन के अनुसार, “मॉर्गेन्थाऊ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ है।

प्रश्न 5. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के निर्णय-निर्माण सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।

अथवा

” अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन सम्बन्धी निर्णयपरक सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

Question 5. Discuss the decision-making principle of international politics.

उत्तर – द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् रिचर्ड स्नाइडर, एच. डब्ल्यू. बर्क और बर्टन सेपिन ने विदेश नीति के अध्ययन में निर्णयपरक विश्लेषण अपनाने का प्रयत्न किया है । यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के बजाय उन अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं के अधिमान्य व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है जो अन्तर्राष्ट्रीय घटना-चक्र को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं । निर्णयपरक सिद्धान्त विदेश नीति-निर्धारण की लम्बी प्रक्रिया में लिए जाने वाले निर्णयों के अध्ययन पर भी जोर देता है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का निर्णयपरक सिद्धान्त

निर्णयपरक सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक नये दृष्टिकोण से देखता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मूल इकाइयाँ यद्यपि राज्य हैं, तथापि राज्यों का समस्त कार्य संचालन प्रशासन के उच्चाधिकारियों द्वारा ही होता है। राज्य के नाम पर समस्त निर्णय व्यक्ति ही लेते हैं। नाजी जर्मनी का व्यक्तित्व हिटलर के व्यक्तित्व का ही प्रतिबिम्ब था। स्वाधीनता के बाद भारत की विदेश नीति के निर्धारण पर पं.नेहरू के व्यक्तित्व की अमिट छाप थी। सोवियत संघ की विदेश नीति पर स्टालिन के व्यक्तित्व और चीन की विदेश नीति पर माओ के व्यक्तित्व का अनूठा प्रभाव पडा है । इस प्रकार निर्णयपरक दृष्टिकोण उन कार्यकर्ताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है जो निर्णयकर्ता कहलाते हैं और उन राज्यों पर भी, जो निर्णय करने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं । यह उपागम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित मानकर चलता है, जिसमें व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व का, उसकी रुचियों, अभिरुचियों. विचारधारा, संस्कृति, धर्म,निर्णय लेने की शक्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार राज्य के कार्यों को निर्णयकर्ताओं के कार्यों के आइने में देखा जाता है।

चीन ने सन् 1962 में भारत की उत्तरी सीमा पर विशाल पैमाने पर सैनिक आक्रमण किया। सन् 1965, 1971 तथा 1999 में पाकिस्तान ने भारत पर हमले किए । सोवियत संघ ने सन् 1979 में अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया। सन् 1983 में ग्रेनाडा के टापू पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी फौजें उतारी इस प्रकार के निर्णय किन कारकों से, किस प्रकार, किन उद्देश्यों से प्रेरित होकर लिए जाते हैं, इसका पता लगाना ही निर्णयपरक प्रणाली का प्रधान उद्देश्य है।

Decision-making principles of international politics

निर्णय लेने में पर्यावरण का विशेष महत्त्व है। व्यक्ति विशेष के निर्णयों पर उसकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक योग्यताओं का प्रभाव तो पड़ता ही है, साथ ही राष्ट्र विशेष की परिस्थिति, उसके नागरिकों के राष्ट्रीय चरित्र, माँगों, दबावों का भी विशेष प्रभाव पड़ता है । इसके अतिरिक्त समूची अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय संकट, महाशक्तियों की भूमिका आदि तत्त्व भी निर्णय को प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्णय एक विशिष्ट पर्यावरण में लिए जाते हैं।

इस पर्यावरण का निर्णय करने वाले तत्त्वों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

(1) आन्तरिक पर्यावरण के घटक तत्त्व – ये हैं व्यक्तित्व,संगठन का स्वरूप, भौगोलिक और प्रौद्योगिक दशाएँ, बुनियादी मूल्य, समाज के कार्यशील प्रभाव के तत्त्व, दबाव समूह आदि।

(2) बाह्य पर्यावरण के घटक तत्त्व- ये हैं अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था, पड़ोसी राष्ट्रों की शक्ति की दृष्टि से स्थिति,महाशक्तियों से सम्बन्धों का स्वरूप आदि ।

उपर्युक्त विविध कारणों का सम्मिलित प्रभाव निर्णय पर पड़ता है। यदि इन सबका सम्यक् ज्ञान हो और इन तत्त्वों का उचित विश्लेषण हो सके,तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर क्या दृष्टिकोण अपनायेगा।

हैरॉल्ड और मारग्रेट स्प्राउट जैसे विद्वान् विदेश नीति के अध्ययन में पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल देते हैं । वे इस तथ्य के अध्ययन पर बल नहीं देते हैं कि कोई निर्णय कैसे और क्यों लिया जाता है । इसके विपरीत अलेक्जेण्डर जॉर्ज और जूलिएट जॉर्ज विदेश नीति सम्बन्धी निर्णय के ठीक अध्ययन के लिए निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व की विविध विधाओं का विश्लेषण करना आवश्यक मानते हैं। अर्थात भारत की निर्गुट विदेश नीति को समझने के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू और इन्दिरा गांधी के व्यक्तित्व को समझने से उस काल की विदेश नीति का स्वरूप समझने में सहायता अवश्य मिलती है।

कतिपय विद्वान् उन कार्यकर्ताओं के व्यवहार के अध्ययन पर बल देते हैं जो विदेश नीति-निर्माण में सही मायने में भाग लेते हैं। ऐसे कार्यकर्ता दो प्रकार के हैं—एक तो वे जो विदेश सेवा के अधिकारी के रूप में कार्य करते हैं। कोहन के विचार में विदेश नीति निर्माण में हिस्सा लेने वाले सरकारी और गैर-सरकारी अधिकारियों के दृष्टिकोणों और विश्वासों के अनुसार ही विदेश नीति का व्यवस्थित | विश्लेषण होना चाहिए। उनका मत है कि विभिन्न महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में जितना आधक प्रभाव राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री.विदेश मन्त्री आदि प्रमुख नेताओं तथा शासन के आधकारियों का होता है, उतना अन्य तत्त्वों का नहीं होता है। अतः निर्णयकरण की प्रक्रिया में हमें निर्णय लेने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व के अध्ययन पर अधिक बल देना चाहिए। इस मत को अलेक्जेण्डर जॉर्ज और जूलिएट जॉर्ज ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने सन् 1956 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘वडरो विल्सन एण्ड कर्नल हाउस’ में विल्सन की समची जीवनी और व्यक्तित्व का तथा वर्साय की सन्धि में उनके प्रमुख परामर्शदाता कर्नल हाउस का विस्तृत विवरण देते हुए बताया है कि उनके व्यक्तित्व ने उनके राजनीतिक कार्यों और निर्णयों को किस प्रकार प्रभावित किया । अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने सन् 1962 में प्रक्षेपास्त्र क्यूबा ले जाने वाले रूसी जहाजों को रोकने के लिए प्रभावशाली कार्यवाही की थी। सन् 1971 में भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बांग्लादेश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाली मुक्तिवाहिनी को सहायता देने का निर्णय किया था। इन निर्णयों का यथार्थ महत्त्व

और स्वरूप इनके व्यक्तित्व के आधार पर समझा जा सकता है और इससे उस समय की विदेश नीति की व्याख्या सही ढंग से समझने में सहायता मिल सकती है। दूसरे, विदेश नीति-निर्माण में विधायिका और कार्यपालिका की विशिष्ट भूमिका होती है। अतः रोजर हिल्समैन के विचार में विधायिका और कार्यपालिका की संरचना,सदस्यों के आचरण आदि का अध्ययन किया जाना चाहिए। । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय विश्लेषण को लाने का श्रेय रिचर्ड स्नाइडर और उनके सहयोगी एच. डब्ल्यू. बर्क तथा बर्टन सेपिन को दिया जाता है। इन्होंने विशेष रूप से विदेश नीति के अध्ययन में निर्णय सिद्धान्त का प्रयोग किया है । इस दृष्टि से इनकी पुस्तक ‘Foreign Policy Decision Making-An Approach to the

Study of International Politics’ का विशेष महत्त्व है । इस पुस्तक में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में कार्यकर्ताओं के व्यवहार का सैद्धान्तिक अन्वेषण किया। वे उन घटकों का पूर्ण वर्णन प्रस्तुत करना चाहते थे जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के कार्यों का रूप निश्चित करते हैं, उन्हें प्रभावित करते हैं । स्नाइडर के विचार में निर्णय निर्धारण करने वाले पदाधिकारियों के व्यवहार का विश्लेषण आवश्यक है। वस्तुतः स्नाइडर और उनके सहयोगियों का उद्देश्य उन वर्गों की एक संप्रत्यात्मक रूपरेखा बनाना था जिसके आधार पर विदेश नीतियों के निर्णयों का अध्ययन करने के लिए आधार सामग्री का संग्रह किया जा सके। स्नाइडर द्वारा प्रतिपादित निर्णय सिद्धान्त के मूल में यह सीधा-सादा विचार है कि

(1) जो भी राजनीतिक कार्यवाही होती है, वह कुछ विशेष व्यक्तियों के द्वारा ही की जाती है, और

(2) यदि हम कार्यवाही की गत्यात्मकता को समझना चाहते हैं, तो उसे अपने दृष्टिकोण से नहीं बल्कि उन व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए जिन पर निर्णय लेने का उत्तरदायित्व होता है।

स्नाइडर के अनुसार किसी भी राजनीतिक कार्य को ठीक ढंग से समझने के लिए यह आवश्यक है कि

(1) किसने अथवा किन्होंने उन महत्त्वपूर्ण निर्णयों को लिया जिनके कारण वह महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया, और

(2) उन बौद्धिक और अन्तःक्रियात्मक प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करना जिनका अनुकरण करके निर्णय निर्माता अपने निर्णयों तक पहुँचे।

उन कारणों का विश्लेषण करते हुए,जो निर्णय निर्माताओं को प्रभावित करते हैं, स्नाइडर उन्हें तीन समूहों में बाँटता है–आन्तरिक परिपार्श्व, बाह्य परिपार्श्व और निर्णय-निर्माण प्रक्रिया। आन्तरिक परिपार्श्व का अर्थ उस समय से है जिसमें अधिकारी अपने निर्णय लेते हैं। इसमें जनमत के अतिरिक्त मूल्यों के सम्बन्ध में प्रमुख मूल्य अभिविन्यास, सामाजिक संगठन की प्रमुख विशेषताएँ, समूह संरचनाएँ और प्रकार्य, आधारभूत सामाजिक प्रक्रियाएँ, सामाजिक विभेदीकरण, विशिष्टीकरण आदि आते हैं। बाह्य परिपार्श्व का अर्थ अन्य राज्यों से है, जिसका अर्थ उन राज्यों के निर्णय निर्माताओं की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से तथा उन समाजों से जिनके लिए वे काम करते हैं और उनके भौतिक पर्यावरण से है। तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व निर्णय-निर्माण प्रक्रियाएँ हैं, जिनका प्रारम्भ प्रशासनिक संगठनों के गर्भ से होता है

और जिनका वे एक भाग हैं। स्नाइडर के अनुसार निर्णय-निर्माण प्रक्रिया के तीन प्रमुख उप-संवर्ग हैं—सक्षमता के क्षेत्र, संचारण व सूचना तथा अभिप्राय । इनमें आमतौर से प्रशासन और विशेषकर उन इकाइयों की, जो निर्णय-निर्माण का काम करती हैं, भूमिकाएँ, आदर्श और प्रकार्य सम्मिलित हैं।

स्नाइडर का विश्वास है कि यद्यपि इस सिद्धान्त का विकास सबसे पहले अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सीमित क्षेत्र में किया गया था, राजनीति विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी उसके प्रयोग की बहुत अधिक सम्भावनाएँ थीं।

स्नाइडर ने निर्णय-निर्माण कारकों और प्रक्रियाओं का अध्ययन निर्णय-निर्माण व्यवस्था के ढाँचे के अन्तर्गत किया था। अब तक राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख पात्र माना जा रहा था और उसके व्यवहार को विश्व की स्थिति की वस्तुपरक यथार्थताओं के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न किया गया था। यह मानकर चला गया था कि राज्यों के लक्ष्य और व्यवहार को भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक और कनाका परिस्थितियों के आधार पर समझा जा सकता था आर राज्य के व्यवहार पर इतना अधक प्रभाव मान लिया गया था कि ये सब कारक चाहे कितने भी वस्तुपरक क्यों न रहे हों,राज्य का व्यवहार वास्तव में निर्णय निर्माताओं का व्यवहार है और वह इस पर निर्भर रहता है कि निर्णय निर्माता इन कारकों को किस रूप में देखते हैं। स्नाइडर ने इस बात पर जोर दिया कि निर्णय-निर्माण की इन प्रक्रियाओं को, जो अधिकारियों (विदेश मन्त्री तथा राजनयिक) द्वारा क्रियान्वित की जाती हैं, आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों के उस मिश्रित सन्दर्भ में, जिसमें वे उन्हें देखते हैं, अध्ययन किया जाना चाहिए।

निर्णयपरक सिद्धान्त की आलोचना

निर्णयपरक सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

(1) निर्णयपरक दृष्टिकोण नीति विज्ञान का हिस्सा है।

(2) निर्णय क्यों लिए गए, यह विश्लेषण इतना जटिल तथा उलझन में डालने वाला है कि अध्ययनकर्ता उसी में उलझ जाता है और जो तथ्य सामने आते हैं,उनकी प्रामाणिकता नहीं जाँची जा सकती।

(3) निर्णयपरक सिद्धान्त से समस्याओं के निदान में कोई सहायता नहीं मिलती, केवल इतनी आख्या होती है कि निर्णय क्यों लिया गया। परन्तु उस निर्णय के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जो समस्या खड़ी हो गई,उसका क्या समाधान हो सकता है, इस पर यह सिद्धान्त प्रकाश नहीं डालता है। अतः यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समुचित उत्तर नहीं देता है।

(4) यह सिद्धान्त विदेशी मामलों के क्षेत्र में लिए गए निर्णयों का विश्लेषण करने का प्रयास करता है और इस बात की चिन्ता नहीं करता कि कौन-से निर्णय सही हैं

और कौन-से गलत । इनका लिया जाना उचित था या नहीं, इस प्रकार के मूल्य विषयक प्रश्नों की उपेक्षा करता है।

(5) इसका क्षेत्र संकीर्ण है। इसके प्रतिपादनकर्ता स्नाइडर ने लिखा है कि निर्णयकरण की प्रक्रिया का एकमात्र लक्ष्य यह होता है कि निर्णयकर्ताओं ने जिस रूप तथा परिस्थिति में निर्णय लिया था,उनका पुनः सृजन करते हुए अध्ययन किया जाए। यह पनः सृजन निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ दृष्टि से निर्णय नहीं होता है । निर्णयकर्ताओं का ही अध्ययन होने से यह विदेश नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सामान्य प्रश्नों की ओर ध्यान नहीं देता है। यह केवल विदेश नीति के विश्लेषण के लिए ही उपयोगी है. अन्तर्राष्ट्रीय जगत् की सामान्य समस्याओं के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं है।

निर्णयपरक सिद्धान्त का मूल्यांकन

इन त्रुटियों के कारण चाहे निर्णयपरक सिद्धान्त से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के एक व्यापक सिद्धान्त की अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हों, तथापि इसने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को अधिक मानवीय बना देने और समझने का प्रयत्न किया है। निर्णयपरक सिद्धान्त से अन्तर्राष्ट्रीय आचरण और व्यवहार को समझने में अधिक सहायता मिल सकती है। यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विदेश नीतियों की परस्पर क्रिया मानें, तो इस परस्पर क्रिया को समझने के लिए एकमात्र उपयोगी दृष्टिकोण निर्णयपरक सिद्धान्त ही, है। वस्तुतः जहाँ अन्य सिद्धान्तों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विदेश नीति-निर्माण की प्रक्रिया के अध्ययन की उपेक्षा की है, वहीं निर्णयपरक सिद्धान्त ने विदेश नीति की जटिलताओं को समझने में काफी योगदान दिया है। फिर भी निर्णयपरक सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आंशिक सिद्धान्त ही है।

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Author: Deep