Internal security handwritten notes pdf in Hindi

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Most Important Internal security Question Answer

प्रश्न : वैश्विक स्तर पर सागरीय क्षेत्रीय सीमा विवादों में होने वाली वृद्धि और बढ़ते तनाव के आलोक में, भारत द्वारा समुद्री सुरक्षा पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया है। समुद्री सुरक्षा प्राप्त करने के क्रम में भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द )

उत्तर :
समुद्री सुरक्षा का संक्षेप में वर्णन करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये और समुद्री क्षेत्रीय विवादों के हाल के उदाहरणों पर चर्चा कीजिये।
समुद्री सुरक्षा प्राप्त करने में भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये भारत द्वारा उठाए जाने वाले आवश्यक कदमों पर चर्चा कीजिये।
उचित निष्कर्ष दीजिये ।
परिचय:

समुद्री सुरक्षा के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा, समुद्री पर्यावरण, आर्थिक विकास और मानव सुरक्षा सहित समुद्री क्षेत्र के विभिन्न मुद्दों को शामिल किया जाता है।
विश्व के महासागरों के अलावा यह क्षेत्रीय समुद्रों, क्षेत्रीय जल, नदियों और बंदरगाहों से भी संबंधित है।
इसके साथ ही नौसेना शक्ति भू-राजनीतिक स्थिरता के साथ अर्थव्यवस्था की प्रगति सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और भारत का भूगोल समुद्री विस्तार और रणनीतिक संबंधों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है।
मुख्य भाग:

समुद्री विवादों के हालिया उदाहरण :
चीन की काल्पनिक नाइन डैश लाइन और इसके द्वारा दक्षिण चीन सागर के अंतर्राष्ट्रीय जल क्षेत्र में रेत द्वीप बनाया जाना।
क्रीमिया क्षेत्र और अज़ोव सागर में रूस की आक्रामकता।
फारस की खाड़ी को अवरुद्ध करने की ईरान की धमकी।
हिंद महासागर से संबंधित मुद्दा:
हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी नौसेना का बढ़ता प्रभाव।
राज्य और गैर-राज्य अभिकर्ताओं द्वारा समुद्री संचार मार्गों को खतरा।
समुद्री डकैती और तस्करी का खतरा।
समुद्री सुरक्षा हासिल करने में भारत के समक्ष चुनौतियाँ:
जलवायु परिवर्तन और जल प्रदूषण: जलवायु परिवर्तन हमेशा समुद्री सुरक्षा के लिये एक समस्या बना रहता है इससे मशीनों के समुचित कार्य को चुनौती मिलने के साथ सुरक्षा की अप्रत्याशित स्थितियों एवं अस्पष्ट लक्ष्य से नौसेना शक्ति में समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
समुद्र में जीवन तंत्र को प्रभावित करने वाला जल प्रदूषण मछुआरों को प्रभावित करने के साथ अन्य तटीय समस्याओं को उत्पन्न करेगा।
व्यापारिक जहाज़ का सुरक्षित मार्ग: अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष या गृह युद्ध से जहाजों या चालक दल के लिये जोखिम उत्पन्न हो सकता है और यह जोखिम संघर्ष की प्रकृति पर निर्भर करेगा।
साइबर हमले: जहाज़ो में अब रिले डिजिटलीकरण और स्वचालन को बढ़ावा मिल रहा है जिससे सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) और परिचालन प्रौद्योगिकी (ओटी) की मदद से साइबर जोखिम प्रबंधन पर बल देना आवश्यक हो गया है।
तेल निष्कर्षण सहित अपतटीय सुविधाएँ: अंतर्राष्ट्रीय जल क्षेत्रों में तेल का निष्कर्षण और इस तेल को ले जाने वाले जहाजों की सुरक्षा का मुद्दा।
चीन का बढ़ता प्रभाव: चीन हमेशा से विभिन्न प्रकार की नीतियों और निवेशों के द्वारा विश्व में अपनी शक्ति बढ़ाने की कोशिश करता रहता है। इस क्रम में संबद्ध देशों में इसके द्वारा किये जाने वाले सैन्य और आर्थिक सहयोग से भारतीय सुरक्षा के समक्ष कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं जैसे:
‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ (OBOR) और ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ चीन की सामरिक नीतियाँ हैं जिसमें इसके व्यापारिक विकास के साथ भारत के खिलाफ कूटनीतिक विचार भी शामिल हैं।
इसके अलावा ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ नीति के द्वारा श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार जैसे देशों में चीन द्वारा सैन्य बंदरगाह बनाने की योजना भारत की समुद्री सुरक्षा के प्रति चुनौती उत्पन्न करती है।
भारत के लिये अपनी समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु आवश्यक उपाय:
संयुक्त अभ्यास: महासागर की सुरक्षा में प्रभावी समन्वय के लिये भारतीय नौसेना और तटरक्षक बल के संयुक्त नौसैनिक अभ्यास की आवश्यकता है क्योंकि इससे सुरक्षा उपायों को अद्यतन करने के साथ समुद्री क्षेत्र में शांतिपूर्ण वातावरण सृजित होगा।
जागरूकता का प्रसार करना: महासागरों में होने वाली विशिष्ट घटनाओं की सूचना देने के लिये नागरिकों जैसे- मछुआरा समुदाय के बीच जागरूकता का प्रसार करना चाहिये।
प्रौद्योगिकी: महासागरों में दुश्मन के हमलों की भविष्यवाणी करने और उन्हें रोकने के लिये सबसे आधुनिक तकनीक को अपनाने के साथ उसका कार्यान्वयन करना चाहिये।
इसके अलावा भारत को अपनी क्षमताओं को और बढ़ाने की आवश्यकता है जैसे:
लॉजिस्टिक्स को मजबूत बनाना
आत्मनिर्भरता और स्वदेशीकरण अपनाना
अद्यतन प्रौद्योगिकियाँ अपनाना
निष्कर्ष:

एक सदियों पुरानी कहावत है कि “जो समुद्र पर राज करता है वह विश्व पर राज करता है”। यह आज भी प्रासंगिक है। हालांकि भारत निश्चित रूप से सैन्य ताकत के बल पर विश्व पर अपना अधिकार जमाने के लिये प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहा है बल्कि यह भारत की क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित करने में निर्णायक है। ऐसा हिंद महासागर क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित करने और हिंद और प्रशांत महासागरों में नेविगेशन की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने हेतु अन्य वैश्विक भागीदारों के साथ समन्वय स्थापित कर संभव हो पाएगा।

प्रश्न: आत्मघाती ड्रोन क्या हैं? ये पारंपरिक युद्ध में किस प्रकार बदलाव ला रहे हैं? (150 शब्द)

उत्तर :
संक्षेप में आत्मघाती ड्रोन को परिभाषित कीजिये।
वर्तमान समय में आत्मघाती ड्रोन का उदाहरण दीजिये।
चर्चा कीजिये कि यह पारंपरिक युद्ध को कैसे बदल रहा है?
उचित निष्कर्ष प्रदान कीजिये।
पृष्ठभूमि:

आत्मघाती ड्रोन केवल एक बार उपयोग में आने वाले हथियार हैं, जो अपने लक्ष्य की दिशा में उड़ते हैं और लक्ष्य से टकराने पर विस्फोट करते हैं। वे लक्ष्य के ऊपर चक्रण करने और अविश्वसनीय सटीकता के साथ उचित समय पर लक्ष्य पर प्रहार करने में सक्षम हैं।

प्रयोग करने वाले देश:

इज़राइल, संयुक्त राज्य अमेरिका, दक्षिण कोरिया और चीन इस प्रकार के ड्रोन के कुछ प्रमुख उत्पादक हैं। हाल ही में, इन आत्मघाती ड्रोनों का इस्तेमाल विभिन्न देशों द्वारा किया गया था जैसे अज़रबैजान ने अर्मेनियाई सेना के खिलाफ तुर्की निर्मित छोटे ड्रोन का इस्तेमाल किया था तथा यूक्रेन और रूस ने उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ इसका इस्तेमाल किया था।

पारंपरिक युद्ध को परिवर्तित करने में आत्मघाती ड्रोन का महत्त्व:
लंबी मारक क्षमता:
क्रूज़ मिसाइलों की तरह, आत्मघाती ड्रोन सैकड़ों किलोमीटर दूर लक्ष्य को भेद सकते हैं, लेकिन क्रूज़ मिसाइलें महँगी होती हैं और आत्मघाती ड्रोन सस्ते होते हैं, फिर भी अधिक सटीक होते हैं।
वहनीय: छोटे पैदल सेना इकाइयों की सहायता के लिए इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करने आसान होता है और इसे इस तरह से अभिकल्पित और निर्मित किया गया है ताकि इसे एक छोटे से बैग में भी ले जाने में आसानी हो।
बेहतर छद्म आवरण: यह अपने लक्ष्यों पर प्रहार करने के लिए पारंपरिक गढ़ों को भेदने की क्षमता रखता है।
उन्नत इलेक्ट्रानिक्स: रडार पर इसका पता लगाना मुश्किल होता है और चेहरे की पहचान के आधार पर उन्हें मानवीय हस्तक्षेप के बिना लक्ष्य पर प्रहार करने के लिए कार्यक्रमबद्ध भी किया जा सकता है।
निष्कर्ष

क्षमताओं के तेजी से विकास, लगातार कम होते लागत मूल्य और व्यापक प्रसार को देखते हुए, यह निश्चित है कि भविष्य के सभी संघर्षों में ड्रोन का उपयोग किया जाएगा और कम से कम विकसित देशों या अन्य देशों द्वारा भी अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया जाएगा।

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Most Important Internal security Question Answer

प्रश्न : कश्मीर संकट कश्मीर के विकास के संकट में समाहित है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)

उत्तर :
विकास के अभाव के साथ कश्मीर संकट का संदर्भ बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
कश्मीर संघर्ष को बढ़ाने और तीव्र करने में विकास की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।
साथ ही साथ इस संकट के लिये ज़िम्मेदार अन्य कारकों को भी बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
कश्मीर संकट भारत के भीतर और बाहर सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।

कश्मीर के विकास और समस्याओं के मध्य संबंध:

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।
हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।
कश्मीर संकट भारत के भीतर और बाहर सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।

कश्मीर के विकास और समस्याओं के मध्य संबंध:

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।
हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।
निष्कर्ष: इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।

इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।

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Author: Deep

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