Internal Security handwritten notes pdf in Hindi 2023

Internal Security handwritten notes pdf in Hindi 2023

Internal Security handwritten notes pdf in Hindi 2023

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Most Important Internal Security Question Answer

प्रश्न : वर्तमान परिदृश्य में आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के क्रम में भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

उत्तर :

भारत में आंतरिक सुरक्षा के वर्तमान परिदृश्य का वर्णन करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये।
विद्यमान चुनौतियों और इन चुनौतियों का समाधान करने के लिये सरकार द्वारा किये गए उपायों पर चर्चा कीजिये।
तदनुसार निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:

आंतरिक सुरक्षा किसी भी देश के लिये महत्त्वपूर्ण मुद्दा होता है और भारत इसका अपवाद नहीं है। हाल के वर्षों में भारत ने आतंकवाद, साइबर अपराध और उग्रवाद के आलोक में आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने में कई चुनौतियों का सामना किया है।

मुख्य भाग:

भारत के समक्ष आंतरिक सुरक्षा चुनौतियाँ:
आतंकवाद:
आतंकवाद भारत के लिये प्रमुख सुरक्षा चिंता का विषय है क्योंकि हाल के वर्षों में कई आतंकवादी हमलों को देखा गया है। इन हमलों को अलगाववादी समूहों और धार्मिक चरमपंथियों सहित विभिन्न समूहों द्वारा अंजाम दिया जाता है।
इन हमलों में सबसे उल्लेखनीय वर्ष 2008 का मुंबई हमला है जिसमें कुछ आतंकवादियों ने शहर के विभिन्न स्थानों को निशाना बनाया था।
साइबर अपराध:
साइबर अपराध भारत के लिये एक अन्य प्रमुख सुरक्षा चिंता का विषय है क्योंकि भारत हाल के वर्षों में साइबर हमलों के प्रति संवेदनशील होता जा रहा है। इन हमलों को हैकर्स, साइबर अपराधियों और राज्य-प्रायोजित समूहों सहित विभिन्न प्रकार के अभिकर्ताओं द्वारा अंजाम दिया जाता है।
इन हमलों में सबसे उल्लेखनीय वर्ष 2017 का वानाक्राई रैंसमवेयर हमला है, जिसमें मैलवेयर से कंप्यूटर प्रभावित हुए थे।
उग्रवाद:
उग्रवाद भारत के लिये एक प्रमुख सुरक्षा चिंता का विषय है क्योंकि हाल के वर्षों में यहाँ कई अलगाववादी आंदोलनों को देखा गया है। इन आंदोलनों को जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित विभिन्न समूहों द्वारा प्रायोजित किया जाता है।
इन आंदोलनों में सबसे उल्लेखनीय नक्सली विद्रोह है, जो 1960 के दशक से देश में सक्रिय है।
सीमा सुरक्षा:
भारत की कई पड़ोसी देशों के साथ संवेदनशील सीमा है, जिसका इस्तेमाल देश में हथियारों, अवैध ड्रग्स और अन्य वर्जित वस्तुओं की तस्करी के लिये किया जा सकता है।
गैरकानूनी प्रवासन:
भारत में पड़ोसी देशों से बड़ी संख्या में अवैध अप्रवासी भी आते हैं, जिससे सुरक्षा के लिये खतरा होने के साथ देश के संसाधनों पर दबाव पड़ता है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिये सरकार द्वारा किये गए उपाय:
आतंकवाद का मुकाबला:
वर्ष 2011 में नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (NCTC) की स्थापना की गई थी। यह आतंकवाद से निपटने के लिये विभिन्न सरकारी एजेंसियों के प्रयासों के समन्वय के लिये जिम्मेदार है और इसे आतंकवादी हमलों का मुकाबला करने की देश की क्षमता में सुधार करने का श्रेय दिया जाता है।
साइबर क्राइम से निपटना:
वर्ष 2004 में भारतीय कंप्यूटर आपातकालीन प्रतिक्रिया टीम (CERT-In) की स्थापना गई थी। CERT-In साइबर अपराध से निपटने के लिये विभिन्न सरकारी एजेंसियों के प्रयासों के समन्वय के लिये जिम्मेदार है और इसे साइबर हमलों का मुकाबला करने की देश की क्षमता में सुधार करने का श्रेय दिया जाता है।
उग्रवाद:
अलगाववादी समूहों के खतरे को दूर करने के लिये भारत सरकार ने सैन्य बल के उपयोग सहित कई उपाय किये हैं। सरकार ने सूचना एकत्र करने और हमलों को रोकने के लिये एक मजबूत खुफिया नेटवर्क भी स्थापित किया है।
सरकार ने गरीबी और बेरोजगारी को कम करने के उद्देश्य से उत्तर-पूर्व में विभिन्न विकास पहल भी शुरू की हैं जिन्हें अक्सर इस क्षेत्र में विद्रोह के मूल कारणों के रूप में उद्धृत किया जाता है।
वामपंथी उग्रवाद से निपटना:
सरकार ने वामपंथी उग्रवाद की समस्या से निपटने के लिये सुरक्षा-उन्मुख दृष्टिकोण, विकास-उन्मुख दृष्टिकोण और अधिकार-आधारित दृष्टिकोण शुरू करके एक बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाया है।
सरकार ने वामपंथी उग्रवाद की समस्या से निपटने में शामिल विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय में सुधार के लिये एक विशेष टास्क फोर्स का भी गठन किया है।
निष्कर्ष:

देश में आंतरिक सुरक्षा में सुधार के लिये अधिक व्यापक और प्रभावी रणनीति की आवश्यकता है जैसे:
आतंकवादियों की घुसपैठ तथा अवैध हथियारों और नशीले पदार्थों की तस्करी को रोकने के लिये सीमा सुरक्षा को मजबूत करना चाहिये।
आतंकवादी हमलों का पता लगाने एवं उन्हें रोकने के लिये खुफिया जानकारी एकत्र करने और साझा करने की क्षमता बढ़ानी चाहिये।

प्रश्न. डीपफेक (Deepfakes), साइबर-अपराधी के लिये अवसर और अन्य सभी के लिये चुनौती प्रस्तुत करता है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

उत्तर :
डीपफेक तकनीक की संक्षिप्त व्याख्या करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये।
डीपफेक तकनीक की चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
डीपफेक तकनीक की चुनौतियों से निपटने के लिये कुछ उपाय बताइए।
तदनुसार निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:

डीपफेक तकनीक का तात्पर्य शक्तिशाली कंप्यूटर और डीप लर्निंग का उपयोग करके वीडियो, चित्रों और ऑडियो में हेरफेर करना शामिल है।
इसका उपयोग फर्जी खबरों के साथ वित्तीय धोखाधड़ी करने के लिये किया जाता है।
इसमें पहले से मौजूद वीडियो, चित्र या ऑडियो में फेरबदल किया जाता है जिसमें साइबर अपराधी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक का उपयोग करते हैं।
मुख्य भाग:

डीपफेक तकनीक का उपयोग घोटालों, सेलिब्रिटी की पोर्नोग्राफी, चुनाव में हेरफेर, सोशल मीडिया में फेरबदल और वित्तीय धोखाधड़ी आदि जैसे गलत उद्देश्यों के लिये किया जा रहा है।
डीपफेक टेक्नोलॉजी की चुनौतियाँ:
साइबर अपराध:
डीपफेक का संभावित उपयोग फ़िशिंग में होता है क्योंकि यह व्यक्ति को नकली तथ्यों का पता लगाना अधिक कठिन बना देता है।
उदाहरण के लिये सोशल मीडिया में फ़िशिंग द्वारा किसी सेलेब्रिटी के नकली वीडियो का इस्तेमाल आर्थिक लाभ के लिये किया जा सकता है।
मीडिया में फेरबदल:
डीपफेक के माध्यम से मीडिया फाइल में व्यापक हस्तक्षेप (जैसे-चेहरे बदलना, लिप सिंकिंग या अन्य शारीरिक गतिविधि में परिवर्तन) किया जा सकता है और इससे जुड़े अधिकांश मामलों में लोगों की पूर्व अनुमति नहीं ली जाती है जिससे मनोवैज्ञानिक, सुरक्षात्मक, राजनीतिक अस्थिरता और व्यावसायिक व्यवधान का खतरा उत्पन्न होता है।
डीपफेक तकनीक का उपयोग पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रम्प एवं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आदि जैसे प्रमुख लोगों को प्रतिरूपित करने के लिये किया गया है।
युद्ध का नया मंच:
किसी देश द्वारा डीपफेक का उपयोग सार्वजनिक सुरक्षा को कमजोर करने और लक्षित देश में अनिश्चितता और अराजकता फैलाने के लिये एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में किया जा सकता है।
भू-राजनीतिक आकांक्षाओं वाले चरमपंथियों और आर्थिक रूप से प्रेरित उद्यमों द्वारा डीपफेक का उपयोग करके मीडिया की खबरों में हेरफेर किया जा सकता है।
इसका उपयोग विद्रोही समूहों और आतंकवादी संगठनों द्वारा लोगों के बीच राज्य विरोधी भावनाओं को भड़काने के रूप में अपने विरोधियों का प्रतिनिधित्व करने के लिये किया जा सकता है।
लोकतंत्र को कमजोर करना:
डीपफेक द्वारा लोकतांत्रिक भावना को बदलने और इन संस्थानों में लोगों के विश्वास को कम किया जा सकता है।
इसका उपयोग कर संस्थानों, सार्वजनिक नीति और राजनेताओं के बारे में गलत जानकारी का प्रसार किया जा सकता है।
चुनाव प्रणाली को बाधित करना:
डीपफेक का प्रयोग चुनावों में जातिगत द्वेष, चुनाव परिणामों की अस्वीकार्यता या अन्य प्रकार की गलत सूचनाओं के लिये किया जा सकता है। जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये बड़ी चुनौती बन सकता है।
इसके माध्यम से चुनावी प्रक्रिया शुरू होने के कुछ ही समय/दिन पहले विपक्षी दल द्वारा चुनावी प्रक्रिया के बारे में गलत सूचना फैलाई जा सकती है, जिसे समय रहते नियंत्रित करना और सभी लोगों तक सही सूचना पहुँचाना बड़ी चुनौती होगी।
राजनेता इसका उपयोग लोकलुभावनवाद बढ़ाने और अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिये भी कर सकते हैं।
डीपफेक ध्रुवीकरण, विभाजन को बढ़ावा देने का एक प्रभावी उपकरण बन सकता है।
डीपफेक तकनीक की चुनौतियों के समाधान हेतु उपाय:
मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देना: उपभोक्ताओं और पत्रकारों के लिये मीडिया साक्षरता, भ्रामक सूचनाओं और जालसाजी से निपटने का सबसे प्रभावी साधन है।
डीपफेक की चुनौतियों का समाधान करने के लिये मीडिया साक्षरता की प्रमुख भूमिका है।
जागरूकता बढ़ाने हेतु मीडिया साक्षरता को बढ़ाया जाना चाहिये।
मीडिया के उपभोक्ताओं के रूप में लोगों के पास जानकारी को समझने,विश्लेषण करने और उपयोग करने की क्षमता होनी चाहिये।
यहाँ तक कि मीडिया की सूक्ष्म जागरूकता से ही होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
विनियमन की आवश्यकता: प्रौद्योगिकी संस्थान, नागरिक समाज और नीति निर्माताओं के साथ विचार-विमर्श कर सार्थक नीति निर्माण से डीपफेक की चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
तकनीकी हस्तक्षेप: जालसाजी का पता लगाने, तथ्यों को प्रमाणित करने और आधिकारिक स्रोतों की पहचान करने हेतु सुलभ प्रौद्योगिकी की भी आवश्यकता है।
व्यवहार परिवर्तन: लोगों को इंटरनेट के महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता के रुप में जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया पर कोई भी जानकारी साझा करने से पहले विवेकपूर्ण विचार करना आवश्यक है।
निष्कर्ष:

मीडिया उपभोक्ताओं के रूप में हमें प्राप्त होने वाली जानकारी को समझने, विश्लेषण करने और उसका उपयोग करने में सक्षम होना चाहिये।
इस समस्या से निपटने का सबसे अच्छा तरीका कृत्रिम बुद्धिमत्ता द्वारा समर्थित तकनीकी समाधान को विकसित करना है।
डीपफेक से जुड़े मुद्दों को हल करने के क्रम में मीडिया साक्षरता में सुधार करना होगा।
इस प्रकार के नए और उभरते खतरों से निपटने के लिये साइबर निकाय विकसित करने की आवश्यकता है।
जालसाजी का पता लगाने, तथ्यों को प्रमाणित करने और आधिकारिक स्रोतों की पहचान करने हेतु सुलभ प्रौद्योगिकी की भी आवश्यकता है।

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Most Important Internal Security Question Answer

प्रश्न : कश्मीर संकट कश्मीर के विकास के संकट में समाहित है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)

उत्तर :
विकास के अभाव के साथ कश्मीर संकट का संदर्भ बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
कश्मीर संघर्ष को बढ़ाने और तीव्र करने में विकास की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।
साथ ही साथ इस संकट के लिये ज़िम्मेदार अन्य कारकों को भी बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
कश्मीर संकट भारत के भीतर और बाहर सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।

कश्मीर के विकास और समस्याओं के मध्य संबंध:

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।
हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।
कश्मीर संकट भारत के भीतर और बाहर सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।

कश्मीर के विकास और समस्याओं के मध्य संबंध:

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।
हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।
निष्कर्ष: इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।

इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।

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